वह, मां.. थी, तेरी...
पग एक: मां
नीर भरे
नयनों... में अपने..
पाल.. रही, इंदीवर* सपने...
संग में तेरे..., बैठ.. अकेले,
कई सुनहरे.. कई रुपहले..
आंगन में
वह... मन के अपने।
* सुंदर, सुखमय, खुशियों भरे
मान मेरी!
वह, मां.. थी, तेरी...
विह्वल... बैठी, देखा करती..
चांद सितारे... कल के सारे..
प्रतिपल तुझमें, बुनती... रहती
सपनीले सपने वह अपने
प्रियतर..., मधुतर.. अपने सपने.. ।
भर भर...
मन में, पाला तुझको...
आशाओं के, महल, दुमहले..
आकांक्षा... की साख पे चढ़ के
सांझ सबेरे, सुख में.. दुख में...
तकलीफों को,
तकलीफों से काटा उसने...।
देख तुझे,
झर जाती आंखे...
चुप.. चुप.. उसकी,
कहतीं थी कुछ.. निपट अकेले..
मन में अपने...
पुष्प-पंखुरी, सौरभ के वातायन से
वह देखा करती,
निशि दिन! तुझमें.. सपने.. अपने ।
देख...रही है,
खुद... को तुझमें,
लहर ले रही फूलों सी वह,
सिहर... रही है, मन में... अपने।
मां है वह, तेरी,
प्यार भरी किलकारी का
उद्बोधन सुनके..
चिहुंक खड़ी... है, अकन रही... है,
लाला.. को, अपने।
खोल रही है, अंतस्थल पट
बेसुध है यादों.. में
दृढ़तर...।
"मां" है ये...
कोई और नहीं है
आज अकेले.. यहां खड़ी है
जीवन का, ताना-बाना बुन,
उलझ गई है, खुद ही उसमें।
मां है ये,
कोई और नहीं है..
सामने तेरे, वृद्ध पड़ी है
छोड़ कार्य, सारे तूं, अपने
आज इसे खुश! कैसे कर दे।
बैठ निकट, सर.. पद पर रख दे।
तूं क्या जाने.. देख तुझे..
कैसी विह्वल हो जाती है
मां बनने की खुशी इसे
किस दुनियां में ले जाती है।
जय प्रकाश मिश्र
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