आप के नाम.. रंगीन... पेरिस की शाम
परिभूमि: कुछ यादें अपने में यथार्थ समेटे, बिजलियों सी तो नहीं, मन-अंधेरे में जुगनुओं सी चमकती रहती हैं। उन्हें लिख देने का मन करता है। उन्हीं में से, यह पेरिस में बिताई कई शामों में से, एक.. आपके लिए प्रस्तुत है।
रौशनी... रंगीन है...
बिखरी.. पड़ी है, सड़क ऊपर..
पैदल पथों पर...
लालिमा लेती..., गुलाबी हो रही है,
टावरों पर...टंगी हैं,
उतने ऊंचे...,
एक भी, सीधी नहीं है,
हर तरफ.. यह "सूक्ष्म" सी,
झिलमिलाती, बदलती.. रंग कैसी...
मुझको लगा, एल. ई. डी. लगी हैं।
एक.. सिलिंडर
रखा हुआ है.. ग्लास का...
विकेरता है, रश्मियां.. हर रंग की
हर शिखर पर, हर टावरों पर..
लाइटों का... चमचमाता
शाम है पेरिस की ये, दिल... से सजी है।
चमचमाती गाड़ियां.. हेचबैक ही हैं
रेस्तरां.. बाहर सजे.. हैं,
कुर्सियां बाहर.. रखी हैं
सामने से ट्राम.., बस... सब जा रहे हैं
पक्के बने.. फुटपाथ के
किनारों... तक
लोग बैठे.. आराम से, पेय..सा
कुछ पी रहे हैं,
हल्का फुल्का खा रहे हैं।
पर... देर तक,
बैठे हुए, एक दूसरे से,
आराम से, शांति से, बतिया... रहे हैं।
जल रही हैं लाइटें.. तीखी, सुरीली
चहलो पहल है गजब की,
सर्द है मौसम.. हवाएं सर्द... हैं,
ठंडक है हल्की..।
बेखौफ.. फिर भी लोग हैं,
सदाओं से,
कुछ.. आत्मगत,
कुछ... अनुरक्त खुद में, दीखते.. हैं।
पक्षियों की कूंज है..
हर ओर फैली
लौटकर सब घोंसलों में आ रहे हैं।
पर इन, जमे..
इन कुर्सियों.. पर बैठे हुए
किसी आदमी को
किसी बात की जल्दी नहीं है।
आराम-फर्मा लोग.. हैं,
आराम से बैठे.... हुए हैं,
भूले हुए घर बार हैं..., सब शांत हैं।
मस्त हैं बातों में सारे, अकेले भी मस्त हैं
सामने... सामान...
मस्ती का रखा है, जाने कब से..
घूंट से.. दर घूंट... धीमे पी रहे हैं।
पकवान... सब ठंडे.. पडे है...
पर... बहुत धीमे, और धीमे,
पक्षियों से..., चुग... रहे हैं।
आंखे बिछाए रास्तों पे देखते हैं
अनवरत... कुछ सोचते हैं
लग रहा कुछ खोजते हैं..
फिर भूलते... हैं।
एक पर्दा चल रहा है, दृश्य का,
भागता सा, चमचमाता,
ट्रैफिकों का
सामने हैं लोग, छरफर,
स्मार्ट, चुलबुल, पोस्टरों से अधिक
सुंदर, वास्तविक...
पर दौड़ते.., भागते.. सब, चल रहे हैं।
तेज चलती गाड़ियां है..
लोग हैं,
स्कर्ट पहने हॉफ, थोड़ा और छोटे...
लोग, सारे दौड़ते हैं,
भागती हो गेंद जैसे.. छलकती, उछलती
स्वस्थ हैं, स्मार्ट हैं, ऐसे।
गजब कद काठी लिए हैं,
दिन, दोपहर ना देखते,
शामो सुबह बाजार बिच..
सब दौड़ते हैं, दौड़ते।
हिरन... हों, सुंदर.. सजीले..
नाप... कर ज्यों बने.. हों,
मुक्त.. हो हर वासना... से
प्यार में पर ढले... हों।
मुस्कुराते, मिल ही जाते, रास्तों पे
यार! जैसे रूप की ये नदी हों!
दौड़ जाऊं साथ इनके..
चाहता है मन मेरा.. भी
तेज इतना ही चलूं,
भागता... है पग मेरा.. भी।
पर उछलती ये गेंद हैं....
हम पिछड़ते...हैं।
बहुत चौड़ी, सड़कें हैं
फैली, चहुंओर इनके..
पार्क सुंदर, हरितिमा हर ओर है,
पार्किंग थोड़ा दूर है,
पर पर्याप्त है, है... जहां पर..
भवन सारे अधिकतम पुराने हैं,
पर न्यूनतम हैं सात तल्ले!
नए तो चौंतीस से ऊपर..., ही हैं।
एक कला है,
हर कोण पर, हर मोड पर
इन बिल्डिंगों में, हर वस्तु में,
हर आदमी में, हर जगह
सना है एक रस अनोखा,
मौन का.. मन में कहीं
स्थायित्व है, कल.. आज.. में
दौड़ कम.. है जिंदगी की.. लग रहा है
पर्याप्त है, चाहत नहीं है
और की।
काम सारे हो चुके हैं, बाकी नहीं हैं,
करने को कुछ, इसलिए
समिधा प्रचुर है,
आदमी और औरते सभी कम हैं।
पर्याप्त है सबके लिए,
यहां सब कुछ
जो यहां पर रह रहे हैं।
काम है सबके लिए, पर लोग कम हैं
काम करने के लिए..
इसलिए महंगा बहुत... ये शहर है..
आसान है.. रहना.. नहीं, इस शहर में।
जय प्रकाश मिश्र
अधिकतम.. लोग हैं "सामान"
खुश दिल.. दिख रहे हैं।
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