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Showing posts from February, 2025

ये जिंदगी अपनी जगह खंभे सी खड़ी है।

भाव: आज का युवा कैसे नौकरी की तलाश में परेशान हाल है, उसकी उम्मीदों की क्या स्थिति है? और उसका अपना जीवन कैसे इस नौकरी के अभाव में, प्रभावित हो रहा है, शादी ब्याह और सामाजिक न्याय सब कही न कही इस नौकरी या रोजगार पर टंगा है। उसकी आत्मस्थिति क्या है और व्यवस्था की इस प्रवंचना से वह किस हाल में है इस पर कुछ लाइने पढ़ें। शायद हम उसे एक वर्चुअल साथी बन कुछ सुकून दे सकें तो हमारी यह मेहनत कुछ अर्थ में सार्थक हो जाएगी। बिजली के करेंट… की अपने भीतर प्रवाह की चाह… में बिजली.. के, दो समानांतर एल्युमिनियम वाले  तारों की,  आस... में,  सालों… से अपनी जगह,  चुप..शांत.. पड़े,  इन वीरान खेतों.. में गड़े न जाने कबसे, अपने हाल में सीधे…खड़े,  खंभों. सी,  पड़ी, ये…. मेरी…  जिंदगी.. क्या किसी जिम्मेदार को   कभी है दीखती ?  ज्यादा तो नहीं  पर थोड़ी..तो है ही, पढ़ी लिखी, एक नौकरी की  तलाश में नौकरी..की आस पर टंगी तेरे* आजीवन साथ की… प्यास में, रुकी   आज भी… वैसे ही,  वहीं है, खड़ी। क्या किसी जिम्मेदार को  यह भूले भी,  ...

वे हमारे देव हैं! हमारी पीड़ा का अहसास है उन्हें…

भाव: आधुनिकता और विकास का मूल्य सबसे नीचे वाले पायदान पर खड़ा आदमी और नींव का अबोल पत्थर ही सहता है। उस चुप बिना आवाज वाले आम आदमी की आवाज को मैने स्वर देने का प्रयास किया है, इन लाइनों में। जैसे हाइवे से फर्राटा भर कर जाने वाले कभी उस हाइवे के आस पास, नीचे तलहटी में या किनारों पर पड़ने वाले गांव में बसने वाले गांव के ग्रामीण का दुख नहीं जान सकता कि उसकी कितनी कीमत वे आजीवन पुश्त दर पुश्त देंगे। आप पढ़ें और आनंद लें, कुछ कभी कर सकें तो कोशिश भी करें। आप ने बनाई हैं,  बहुत सुंदर... आरामदेह..  सड़कें,  उनपे.. चल के,  आज खुद   देखा.. मैने।   पर! क्या कभी..  ये भी सोचा है..आपने..,  इन सड़कों ने... कितना अलग! कर दिया है हमें,  हम सभी को,  आपस में। हमारे बीच.. से, हमारे सीनों..पे  । एक वास्तविक..  लक्ष्मण रेखा…  ही, खींच दी है आपने…इनसे,  हमलोगों की रोजमर्रा जिंदगी में। बिना जाने… बिना पूछे…  हममें से किसी का भी मंतव्य,  बिना हमारी सहमति, वा रजामंदी के, हमारे ही खेतों के बीच से, आपने अपने,  आने जाने की ज...

महाशिवरात्रि की शुभकामना

शुभ शिवरात्रि  (बावरो.. रावरो नाह.. भवानी)  प्रथम शुभ शिवरात्रि का वर्णन एक समय था जीवन नहीं था, इतना.. लंबा इस धरा... पर, उस समय  वह, एक कोना मृत्यु.. का  हाथ.. में पकड़े हुए,  सृष्टि के उस छोर से  इस छोर तक आवेग में भर,  नृत्य करतीं जा रही थीं। जीवन तो... था, पर  बहुत छोटा,  स्वांस... भर बस,  हर.. किसी का वह, देख.. इसकी,  इस प्रकृति.. को  मन ही मन पछता रही थीं। सीमित, था जीवन..  तब, सभी का..  उर्मियों सा, क्षणिक था!  उछलते ही, शांत होता.. पलों.. में,  हां प्रतिपलों में,  रश्मियों... में, एक क्षण.. को  चमकता,  दूसरे.. क्षण,  अंधेरों में, शांत.. होता  मुक्त.. होता, मृत्यु... में, वह जा रहा था।  इतने भयानक दंश.. से  संयुज्य... थी  यह! सृष्टि...  इसलिए,  जीवन.. बढे,  एक स्वांस से, कुछ और आगे  सांस.. के संग, सिल.. सके,  और आगे, बढ़ सके.. मंथन... इसी पर  वह... सतत... करती, जा रही थी। पछता... रही थीं,  शक्ति वह.. बदलते.. निज रूप.. के ...

तुम भी वहीं हो, उससे अलग तो नहीं।

आंसू आंखों में..लिए बिरह.. विपिन.. बन  तपिश भरे छावों में.. बैठा मैं विकल.. मन।  शामली लता के सूखते  तने..से सटकर...  देखता.. पतझर.. झर झर झरते..  खड़-खड़,  खड़-खड़ करते.. ये सूखे पत्ते.. अपने... से लगे। झर झर झरते  ये निर्झर.. क्या लेकर जाते है..  आगे सोचता हूं बैठकर..। आगे  कैसे, ऐसे उत्साह में भर भर.. क्या ये जानते है?   आगे, बहती नदी है कोई!    शीतल! शांत निर्झरणी है.. या पता है! जल्दी ही टूट... टूट कर,  बहुत नीचे... गिरकर,  बिखर...कर  बूंद.. बन बन!   अलग थलग होंगे, सब अपनो को छोड़कर। पर! उत्साह तो देखो.. कोई चिंता नहीं,  बोलते हैं एक संग!  कल-कल-कल, कल-कल-कल!  नदी में गिर जाएंगे,  फिर एक हो, साथ बहेंगे सागर से मिलेंगे.. लेकिन क्या चैन है वहां... तपिश है, उबलना होगा.. धीमे धीमे.. बादलों के रथ पर चढ़ना.. होगा.. मैं आंसू क्यों कहूं!  अपने मुंह से... प्यासी सूखती... गर्म धरती पे बरसना होगा। इसलिए  मेरी भी सुनो!  मिलना, बिछड़ना, खोना पाना मन तक ही है,  सारा ...

उल्लसित हृदय के आगे, जग छोटा सा दिखता है,

अतिशय सुख से त्रस्त हृदय  अभिलसित आंख मुंद जाती, चेतना शून्य हो जाती है तब  रस.. समाधि लग… जाती। बन जाती है सेज स्वर्ग तब मन की गति… रूक जाती  अनुभव मात्र शेष बचता है बुद्धि….. बिलग हो जाती। बिंध जाता है.. हृदय पटल जब नर्म कुटिल.. कांटों से पीड़ा प्रिय कितनी लगती है  बिँध तीक्ष्ण नयन बाणों से। रूक जाता हूँ, और खोजता किसमें कौन बिंधा है, कितना तन है किसका मन है कुछ भी पता नही हैं। तन ले, मन की यह उलझन जब नदी मध्य जाएगी समय सलिल की धारा से उस  क्या पार उतर पाएगी। उल्लसित हृदय के आगे जग छोटा सा दिखता है, इन उम्मीदों में बंध कर नभ बौना सा लगता है। उनके संकल्पों में तो सागर सिमटा जाता है, कदमों के नीचे उनके धरती बौनी लगती है। बन पाती काश! सुनहरी  बगिया रस भरी रसीली। कुछ सुमन अधखिले हिलते मुसुकाते मुकुलित होते। जय प्रकाश मिश्र

जो प्रीत में डूबे रहे...वो सोए सारी रात!

रूपक 1:  जीवन सीढ़ियों में…. कई डंडे लगा रखे थे, किसी ने एक तल से  दूसरे पर,  सेफ चढ़ने के लिए। तरीका  अच्छा बहुत था,  सोचता हूं आज, उसका  इतनी लंबी, जिंदगी के, रास्ते को बांटने का, टुकड़ियों में। जय प्रकाश मिश्र रूपक 2: इच्छाएं  अब नहीं ख्वाइश.. है कोई  वह… मुस्कुराया...   कहते हुए, मैं सोच में डूबा रहा!  कुछ देर तक,  फिर  फुसफुसाया,  फिर से बता.. क्या कोई  पूरी हुई है..!  एक ख्वाइश,  आज तक।  आगे तो बढ़!  हिम्मत तो कर…!  अंत में… अच्छा लगेगा.. पर... मुंह को,  जलने से.. बचा, गुड......,  तभी तो,  मीठा... लगेगा। जय प्रकाश मिश्र रूपक 3: विश्वास गरीबी में पले तेरे कुनबे में रहता हूं, यहीं की सांस लेता हूं, नहीं हूँ दूर तुमसे मैं.. सपनों में,  कभी भी मैं।  इसलिए  बहुत छोटा पयाम देता हूं। सुनो,  ऐ मन मेरे!   किसमें फंसा!  आकर यहां तूं!  बेर के कांटे हैं ये!  छोटे बहुत हैं, देखने में, पर मिल गए हैं,  यदि तुझे,   पास से ये...

ख्वाबों में पलते हैं मेरे, मेरे आंसू

पग एक: आंसू इन बह रहे, मेरे आंसुओं को,  बांध देगा,  मजबूत…हाथों से वो, अपने सोचता है!  कष्ट है! मैं क्या कहूं!  बता उसको...  ये, निकलते है आप… से,  पिघलता जब हृदय खुद, भीतर कहीं से। अरे यह, रसहृदय हैं पसीजते हैं,  गहरे.. अंधेरों में कहीं... बहुत गहरी भावना की खान में..। ला..गू नहीं कानून.. कोई!   बश नहीं, मेरा है इन पर!   प्रतिबंध कोई, ये नहीं हैं मानते। छुपते.. नहीं हैं आंख.. में मैं क्या करूं!  बस जानते हैं, निकलने का रास्ता.. एक ही, या झुर झुराकर  रूंध देंगे गले को। बदल दो तुम नाम इनका!  चाहे जो रख रख लो!  ये खुद नहीं हैं, नाम अपना जानते। छोड़ दो मेरे आंसुओं को  मुक्त कर दो,  बहने.... दो इन्हें  तुम, उम्र भर, सीजने दो प्यार में। जय प्रकाश मिश्र पग दो: आवरण हैं प्रेम के ये आंसू, ये उदासी,  नीम के नीचे, छनती छायाओं बीच  बिहरती, विचरती ये चांदनी  मुस्कुराहट, कभी छुपती, कभी दिखती  आकाश में उस डूबते, निकलते चांद सी.. आती जाती झोंको सी,  चितवन उसकी,  आवरण हैं प्रेम का...

आज कल जीना आसान नहीं!

आज कल जीना  आसान नहीं सहना है,  हर कदम, हर स्तर पर जब भी निकलो, यारों  घर से बाहर या अंदर। समय तो वही है, पर इसे किसने लगाए, ऐसे, बेहतरीन नायाब "पर" उड़ता है  अब बिल्कुल स्मूद,  पता ही नहीं चलता,  जब भी जाओ  ऑफिस, ट्रेन पकड़ने, बच्चे को छोड़ने, लेने,   इन्हीं जाम, घिरीं सड़कों पर। पर सहना!  कुछ न कहना!  अद्भुत है ये आदमी का गहना!  मानो मेरी…ज्यादा या, थोड़ी  खुश! रह कर सहना,  भीतर से, व्यथित न होना और  उन लाचार,बेकार,   बूढ़े, बच्चे, अपाहिज, बीमार   नवसिखुओं को  क्षमा करके  धन्यवाद  कहना… जिन के कारण आपको  जीवन के इन्हीं संकरे रास्तों पर  कुछ पड़ा हो कुछ सहना...। अद्भुत, महकता,  सुंदर, ताज़ा फूल  खिला देता है,  जैसा प्रकृति भी नहीं खिला सकती। उन परेशान, हताश, घबराए,  किंकर्तव्य विमूढ़ चेहरों पर तुम खुद देखना!  कैसे खिल जाते हैं!   आभार से झुक जाते हैं!  अपनी सुदीर्घ व्यथा  एक क्षण को भूल जाते है। और आपको  अपने भीतर,  सच कहता...

पखेरू... कोई मैं होता,

सोचता हूं!  ढलती हुई, इस उम्र में भी,  बैठा हुआ, चुप-घुप पड़ा, एकांत में,    काश! कोई नवेला, फुदकता  सुंदर पखेरू... मैं भी होता...  और उड़ता..,  बादलों तक बिन थके.. आकाश में। तो,  आनंद से,  हृदय को स्पर्श करता, उमंगता  प्यार का कोई गीत गाता…  बैठ कर, फूलों भरी.. इन डालियों पे। जो छू.. रही हैं शांति से,  बहती नदी के, पृष्ठ ऊपर  सतह  को, विश्रांति में, प्यार से, हाथ से, और उंगलियों से। मैं, स्वर मिलाता… मधुर मीठा  नदी की इस कुलकुलाती बह… रही आवाज.. से, इन तरंगों पर नाच उठता,  रश्मियों संग सूर्य की  जो खेलती.. है गिर.., उठ..  रही,  लय विलय होती,  हर स्पंद पर  इठल करती, पवन के संग उर्मियों पे। चाहता हूं!  उड़ के जाता,  दिन किसी, इन सांवरी,  कंजरी, सजीली,  प्यार में, बादल के, उजली,  घुमड़ती, इन रसभरी, आनंद करती बदलियों के...    दूर…,  उस,   सुंदर से घर में!  और, भीग… जाता,  स्नेह सिक्ता, शुभ्र सुंदर, ओस में।  मैं, रंग.. लेकर...

जरूरतमंद तो दूर, एक चिड़िया भी नहीं रहतीं उनमें,

तुम्हारी, ये रोक,  मर्यादाएं, बाध्यताएं श्रृंखलाएं, रूढ़ियां और वर्जनाएं  मुझे मुक्तता से रोकती हैं,  पग पग पर, टोंकती हैं,  उन्मुक्त जीवन से रोकतीं हैं। संस्कृति की, समाज की सभ्यता की, मानवता की,  देश-काल की, उम्र-ए-लिहाज की आपसी संबंध और  दकियानूसी विचार की,  हल्की हों या भारी,   हमें,  क्या देतीं हैं?  उसने पूछा?  बड़ी निष्ठुरता से,  बेरस होकर.. मैं सोचता रहा,  अपने में, उसमें करता क्या!  अपनेपन को घोलता रहा..। उसकी निडर आंखों में देखता प्यार से, इत्मीनान से, धीमे से  बोला.. कभी देखा है!  सड़कों किनारे,  बेकार पड़े.. पी.डब्लू.डी. या सिंचाई विभाग के  किसी दीवाने खास सी  लगती  आकृति वाले,  त्यक्त, पुराने,  खाली पड़े,  हर वर्जनाओं... से मुक्त.....,  गेस्ट हाउस को। या  रेलवे लाइनों के किनारे  अबन्डेंट... पड़े अपने समय के भव्य, दिव्य..  संरचनाओं को!   ये सभी!   पूरी तरह मुक्त हैं... अपनी रोक... के दरवाजों से,  मर्यादाओं... की ...

यह प्रेम क्या है!

तूं नहीं, यह वस्त्र तेरा, छू मुझे  रसभूति की, अनुभूति में  जब डूब जाए... तो.. समझना..  प्यार की “शुभ परिधि” में  तुम आ गए हो। जिक्र का झंडा, किसी के नाम का राज्य में अपने लगाकर,  फहरता उसे देखकर भीतर खुशी.. हो,  फूटती.., तो.. समझना  प्यार की “शुभ परिधि” में  तुम आ गए हो। लरजती..  कोमल मुलायम.. भावनाएं बांधती.. तुम्हें पाश में हों,  खींचतीं..  राग हैं वे, त्याज्य हैं वे,  जानना.. प्रेम ताजा, सख्त होगा,  लुज लुज नहीं रे.. जो, चिपक जाए, अरे! वह मुक्त है,  चिप चिप नहीं रे!   खुद देखना,  वह  मुक्ति का संदेश है रे!  जब तुम्हे, ऐसा मिले कोई,  रास्तों में, विलग जग से तो.. समझना  प्यार की “शुभ परिधि” में  तुम आ गए हो। प्रेम... होगा हृदय में तो मुक्त.. होगा, बंधनों के, बंध से वह दूर.. होगा तन ही, क्यों,  मन में, उसे आनंद... होगा। जब तुम्हे ऐसा लगे,  किसी साथ में तो.. समझना  प्यार की.. “शुभ परिधि” में  तुम आ गए हो। फूल, कलियां  प्रेम का ही भाग हैं जिसमें नहीं है प्...

बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है

अरे रे!  बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है  रस.. में तेरे.. देख! तुझको मुझे लगता फांक.. हो, कोई रसीली,  आम की मीठी.. महकती…, पास मेरे। अरे रे...!  बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता... है, रस में तेरे..।  अरे रे!  बिन तेरे… बोले। मेरा तन… सिहरता है,  आब से, भीग तेरे.. नहा कर, चांदनी हो सो रही कोई पास मेरे…। अरे रे!  बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे।  अरे रे!  बिन तेरे… बोले। मेरा, मन खिंच रहा है  प्यार में तेरे उमंगता  महकती मलयानिली भोर की बयार में ये नहाता है साथ तेरे… अरे रे!  बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे।  अरे रे!  बिन तेरे… डोले मेरा मन… डोलता है, केशुओं में कृष्णता की छांह  ठंडी  ये मेरा दिल ढूंढता है। अरे रे!  बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे।  जय प्रकाश मिश्र भाव: जब कोई प्रिय लगता है, और उससे स्नेह बंधन हो जाता है तो हमे उसमें केवल और केवल अच्छाइयां ही दिखती हैं। हमारी तर्क बुद्धि और विवेक दोनों शिथिल हो जाते हैं। और हम सम विंदु, मौलिक स्थिति से व...

बह-रूपिया जिंदगी! बाज़ आए तेरी फसाहत से,

चल परे हट!   बह-रूपिया जिंदगी!   बाज़ आए  तेरी फसाहत से, हंसने, रूठने ठनकने,  ठसकने..  , तिस पर भी मान जाने से। अजगर की तरह, कसती,  छलती, छनकती जुआरी के अरमानों सी, मचलती, उछलती, फुदकती,  किलकती, बारंबार दिल लुभाती,  पास.. हिये तक  बुलाती । सोते जागते,  बहुरंगी..., सुनहरी,  सपने  बुनती..., दिख जाती। दुःखिया के जीवन में  बिन बुलाए,  रोज रोज कराहती, कंहरती रोती, बिलपती, बिलखती,  बिखरे.. बेजान सामानों.. सी, पलक झपकते ही बिखर.. जाती।  देखा है तुझे.. खोते.. कभी अपनापन,  कभी अपनों को.., बांधते.. गमछों में कभी मुकद्दर को.. कभी खट्टे, मीठे, तीखे सपनो को। आए थे ढूढते स्वप्न,  हरे भरे रंगों... का,  तेरे संग... यहां आकर देखा  तेरे  अद्भुत.., निराले,  अनदेखे... ढंग..। तूं वो... नहीं!   जिसे मैं.. जानता था , जिसे मैं.. जीता था,  अनुमानता.. था। तूं कोई.. और निकली, सच कहूं तो  शातिर से आगे की,  शातिरिनी निकली। आया था पूरने  अपनों का अरमान,  बहा...