पखेरू... कोई मैं होता,
सोचता हूं!
ढलती हुई, इस उम्र में भी,
बैठा हुआ, चुप-घुप पड़ा, एकांत में,
काश! कोई नवेला, फुदकता
सुंदर पखेरू... मैं भी होता...
और उड़ता..,
बादलों तक बिन थके.. आकाश में।
तो,
आनंद से,
हृदय को स्पर्श करता, उमंगता
प्यार का कोई गीत गाता…
बैठ कर, फूलों भरी.. इन डालियों पे।
जो छू.. रही हैं शांति से,
बहती नदी के, पृष्ठ ऊपर
सतह को, विश्रांति में,
प्यार से, हाथ से, और उंगलियों से।
मैं, स्वर मिलाता… मधुर मीठा
नदी की इस कुलकुलाती बह… रही
आवाज.. से,
इन तरंगों पर नाच उठता,
रश्मियों संग सूर्य की
जो खेलती.. है
गिर.., उठ..
रही,
लय विलय होती, हर स्पंद पर
इठल करती, पवन के संग उर्मियों पे।
चाहता हूं!
उड़ के जाता,
दिन किसी, इन सांवरी,
कंजरी, सजीली,
प्यार में, बादल के, उजली,
घुमड़ती, इन रसभरी, आनंद करती
बदलियों के...
दूर…, उस, सुंदर से घर में!
और, भीग… जाता,
स्नेह सिक्ता, शुभ्र सुंदर, ओस में।
मैं, रंग.. लेकर इंद्रधनुषी…
अपने परों… पर,
उतर.. आता,
भूमि पर इस, कुशल से।
सोचता हूं!
पखेरू... कोई मैं होता,
एक मीठा, अधपका सा
फल गिराता
आम का, अमरूद का या सेब का
भूख से तड़पते
इन बालकों के सिर के ऊपर।
गुदगुदाता, उछल करता
इन सभी संग मौज करता
कूद कर!
खेलता एक बार मैं
श्रीकुंज वन में
श्री-रास करते, प्यार में डूबे हुए
श्रीराधिका, श्री गोपि जन,
श्री कृष्ण के संग, श्री वृन्दावनम में।
जय प्रकाश मिश्र
भाव:
कल्पनाओं और यथार्थ का
अद्भुत कॉकटेल है।
सोचता रहा ऊर्जा कैसे कहां पाऊं,
चलो एक चिड़िया ही बन जाऊं।
पग दो: वे.. दो पल, मेरी जिंदगी के
उपहार क्या था?
बहुत छोटा! सा सामां हाथों में,
निर्जीव.., बंद.., शांत..,
पर चम चम चमकता,
हां, तरीका गजब.. था,
थमाने का..उनका
परियों का असली, जादुई
खजाना हो,
ऐसे पकड़ा था, उन्होंने
हाथों में अपने।
उस वक्त वह आम आदमी नहीं था,
चेहरे पर जीवन, जीवंत हो उभरा था,
हल्का, हौले से, मुस्कुराया वो
सौम्यता, झरती रही,
शांत परिशांत मुख से..
अनुग्रह लिपटता हुआ बाहर आया
कितनी विनम्रता से
उसने वह उपहार
झुक कर मुझे पकड़ाया।
मैंने उपहार नहीं देखा
तरीका.. देखा
देने के तरीके से अभिभूत,
आत्मभूत हुआ, अंदर से बाहर तक
भर आया।
उसने! क्या दिया?
कुछ भी तो नहीं, किसी ने
उसे, देखा भी नहीं!
सब कुछ सामने ही था
खुला.. खुला.. फैला तो नहीं..
हां! मैने उस देने वाले के,
लबों पर खिलती
कलियों सी महकती
मुस्कुराहट आंखों में,
धीमे से ले ली
उसे तो…
इसका पता तक भी नहीं।
जय प्रकाश मिश्र
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