ये जिंदगी अपनी जगह खंभे सी खड़ी है।
भाव: आज का युवा कैसे नौकरी की तलाश में परेशान हाल है, उसकी उम्मीदों की क्या स्थिति है? और उसका अपना जीवन कैसे इस नौकरी के अभाव में, प्रभावित हो रहा है, शादी ब्याह और सामाजिक न्याय सब कही न कही इस नौकरी या रोजगार पर टंगा है। उसकी आत्मस्थिति क्या है और व्यवस्था की इस प्रवंचना से वह किस हाल में है इस पर कुछ लाइने पढ़ें। शायद हम उसे एक वर्चुअल साथी बन कुछ सुकून दे सकें तो हमारी यह मेहनत कुछ अर्थ में सार्थक हो जाएगी।
बिजली के करेंट… की अपने भीतर
प्रवाह की चाह… में
बिजली.. के, दो समानांतर
एल्युमिनियम वाले
तारों की, आस... में,
सालों… से अपनी जगह,
चुप..शांत.. पड़े,
इन वीरान खेतों.. में गड़े
न जाने कबसे, अपने हाल में
सीधे…खड़े, खंभों. सी,
पड़ी,
ये…. मेरी… जिंदगी..
क्या किसी जिम्मेदार को
कभी है दीखती ?
ज्यादा तो नहीं
पर थोड़ी..तो है ही, पढ़ी लिखी,
एक नौकरी की
तलाश में
नौकरी..की आस पर टंगी
तेरे* आजीवन साथ की…
प्यास में, रुकी
आज भी… वैसे ही, वहीं है, खड़ी।
क्या किसी जिम्मेदार को यह
भूले भी, कभी है, दीखती ?
शायद कभी,
ये भी… सजती,
मेरी-तेरी, भी बारात,
ज्यादा नहीं थोड़ी धूम से निकलती।
साथ के साथी,
घर के बड़े-बूढ़े,
प्रयाण* करने से पहले एक बार
हंस.. मुस्कुरा लेते
काश! समय रहते*,
हम तुम भी मिल... लेते!
इस इंतजार में
पलकें.. रोके,
हर इम्तहान, पूरी ईमानदारी
ज्यादा तैयारी
से देता हूं..
इन्हीं सब में जो खून बचा है
मां बाप का.., इस ढलती, उम्र में
उसे भी,
तुम्हे.. कैसे कहूं!
मैं उनका बड़ा बेटा ही
अनचाहे चूस लेता हूं।
मत पूछ मेरा हाल,
कैसे हूं!
पेपर लीक की
जब जब सुनता हूं…
कुछ अपने और कुछ अपने देश के
भाग्य पर
अकेले, एकांत, सुनसान में
बैठ भीतर ही भीतर, रो लेता हूं।
जिंदगी अब मेरी
केवल विश्वास और सांसों.. पर
है... टंगी।
एक सच! बताऊं,
रेलवे लाइनों के, किनारे
बहुत... पुराने
सालों से निर्जन... वीरान...
अबेंडेट.. पड़ी
बे-पूछ.. इमारत सी
सरकार की, सरकार द्वारा
छोड़ी गई,
उस संपद सी
ये मेरी... जिंदगी,
तेरे नाम की गई... जिंदगी
आज भी, वैसे ही,
सुनसान, गलियों में वहीं, है पड़ी।
शायद कभी
कोई बिछड़ा जोड़ा
कबूतरों का खोता, खोता
अपना प्यारा सा खोंता लगा ले
इनमें…
जिंदगी की आस फिर
वापस जगा दे इनमें।
इसलिए,
तुम आना, ये सरसों के खेत
हर साल हंसेंगे, गदराते खेत
पीली चादर, वैसी ही ओढ़ेंगे,
तेरे आने की चाहत में
फागुन बीतने के बाद तक
गदराते या ग़ुदराए चने मटर मिलेंगे।
इन्हें मैने बोया है, तुम्हारे लिए
इन्हें मैने बोया है, बस तुम्हारे
संतुष्टि के लिए।
जय प्रकाश मिश्र
ए…क बी…ज, बोया था
गहरे,
अंधेरों... में
निपट.. अकेले,
खोज रहा रस्ता वह अपना
किन गलियों से होकर गुजरे।
पा वसंत की गर्मी... भीतर
अकुलाया!
पूछा आ बाहर,
क्या वसंत ऋतु बीत गई है
हँसने की ऋतु बीत गई है।
छोटा... पादप
निरख.... रहा था
साथी उसका विकल बहुत था,
रेशम... सी किरणों.. ने आकर
सहलाया... दोनों को निज कर।
धीमे.... से कानों.... में बोली
हँसने की ऋतु... शुरू हुई है।
किसने... कहा अरे! तुमसे है,
हँसने की ऋतु.... बीत गई है।
जय प्रकाश मिश्र
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