बिन तेरे… बोले मेरा मन… भीगता है

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है 

रस.. में तेरे..

देख! तुझको मुझे लगता

फांक.. हो, कोई रसीली, 

आम की मीठी..

महकती…, पास मेरे।

अरे रे...! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता... है, रस में तेरे..। 


अरे रे! 

बिन तेरे… बोले।

मेरा तन… सिहरता है, 

आब से, भीग तेरे..

नहा कर, चांदनी हो सो रही

कोई पास मेरे…।

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे। 


अरे रे! 

बिन तेरे… बोले।

मेरा, मन खिंच रहा है 

प्यार में तेरे उमंगता 

महकती मलयानिली भोर की

बयार में ये नहाता है

साथ तेरे…

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे। 


अरे रे! 

बिन तेरे… डोले

मेरा मन… डोलता है,

केशुओं में कृष्णता की छांह ठंडी 

ये मेरा दिल ढूंढता है।

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे। 

जय प्रकाश मिश्र

भाव: जब कोई प्रिय लगता है, और उससे स्नेह बंधन हो जाता है तो हमे उसमें केवल और केवल अच्छाइयां ही दिखती हैं। हमारी तर्क बुद्धि और विवेक दोनों शिथिल हो जाते हैं। और हम सम विंदु, मौलिक स्थिति से विक्षेपित हो जाते हैं। यही से राग जन्म लेता है। और प्रेम से विषय बनने लगता है। प्रेम बुद्धि और विवेक को स्थिर रखता है उसे कुंठित नहीं करता मुक्त करता है। बांधता नहीं सुरभित कर अंतर से प्रफुल्लता प्रदान करता है।


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