तुम भी वहीं हो, उससे अलग तो नहीं।
आंसू आंखों में..लिए
बिरह.. विपिन.. बन
तपिश भरे छावों में..
बैठा मैं विकल.. मन।
शामली लता के सूखते
तने..से सटकर...
देखता.. पतझर..
झर झर झरते..
खड़-खड़, खड़-खड़
करते.. ये सूखे पत्ते..
अपने... से लगे।
झर झर झरते
ये निर्झर..
क्या
लेकर जाते है..
आगे
सोचता हूं बैठकर..।
आगे
कैसे, ऐसे
उत्साह में भर भर..
क्या ये जानते है?
आगे, बहती नदी है कोई!
शीतल! शांत निर्झरणी है..
या पता है! जल्दी ही
टूट... टूट कर,
बहुत नीचे... गिरकर,
बिखर...कर
बूंद.. बन बन!
अलग थलग होंगे, सब
अपनो को छोड़कर।
पर! उत्साह तो देखो..
कोई चिंता नहीं,
बोलते हैं एक संग!
कल-कल-कल, कल-कल-कल!
नदी में गिर जाएंगे,
फिर एक हो, साथ बहेंगे
सागर से मिलेंगे..
लेकिन क्या चैन है वहां...
तपिश है, उबलना होगा..
धीमे धीमे.. बादलों के रथ पर
चढ़ना.. होगा..
मैं आंसू क्यों कहूं!
अपने मुंह से...
प्यासी सूखती... गर्म धरती पे
बरसना होगा।
इसलिए
मेरी भी सुनो!
मिलना, बिछड़ना, खोना पाना
मन तक ही है, सारा संसारा!
यह जीवन है, जीवन गति है
इससे गुजरना ही होगा।
किसकी किसकी
कितनी कितनी चिंता करें..
पेड़ की, छाया की, निर्झर की
पानी की, नदी की...
छोड़ो रूप हैं, एक पानी ही के सब
बिखरना, बनना यही नियति
है इनकी।
तुम भी वहीं हो
उससे अलग तो नहीं।
जय प्रकाश मिश्र
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