जरूरतमंद तो दूर, एक चिड़िया भी नहीं रहतीं उनमें,

तुम्हारी, ये रोक, 

मर्यादाएं, बाध्यताएं

श्रृंखलाएं, रूढ़ियां और वर्जनाएं 

मुझे मुक्तता से रोकती हैं, 

पग पग पर, टोंकती हैं, 

उन्मुक्त जीवन से रोकतीं हैं।

संस्कृति की, समाज की

सभ्यता की, मानवता की, 

देश-काल की, उम्र-ए-लिहाज की

आपसी संबंध और 

दकियानूसी विचार की, 

हल्की हों या भारी,  

हमें, क्या देतीं हैं? 

उसने पूछा? बड़ी निष्ठुरता से, 

बेरस होकर..

मैं सोचता रहा, 

अपने में, उसमें करता क्या! 

अपनेपन को घोलता रहा..।


उसकी निडर आंखों में देखता

प्यार से, इत्मीनान से, धीमे से 

बोला..

कभी देखा है! 

सड़कों किनारे, बेकार पड़े..

पी.डब्लू.डी. या सिंचाई विभाग के 

किसी दीवाने खास सी 

लगती आकृति वाले, त्यक्त, पुराने, 

खाली पड़े, 

हर वर्जनाओं... से मुक्त....., 

गेस्ट हाउस को।

या 

रेलवे लाइनों के किनारे 

अबन्डेंट... पड़े

अपने समय के भव्य, दिव्य.. 

संरचनाओं को!  


ये सभी!  

पूरी तरह मुक्त हैं...

अपनी रोक... के दरवाजों से, 

मर्यादाओं... की खिड़कियों से, 

लाज... के पर्दों से..

ध्यान से देखना इन्हें..

ये मुक्त हैं आज

आदमी या जानवर की आवाजाही

की बाध्यताओ से… ।

सभी कुछ से मुक्त… 

कैसे दिखते हैं? 

क्या भूतघर से? 

उजाड़, नीरस, डरावने! 

अजीब से, बे-रस, मुर्दानबे! 


जरूरतमंद तो दूर, 

चिड़िया भी, नहीं रहतीं उनमें, 

न ही बनातीं हैं अपना, घोंसला इनमें।

बच्चे के रोने की, हँसने की 

आवाजें नहीं आतीं 

फिर 

कभी भी लौट कर उनमें।


फर्क बस इन्हीं रोक, 

वर्जनाओ, मर्यादाओं का ही तो 

है वहां।

इन संरचनाओं को, छोड़ने के बाद, 

आदमी ने मात्र..

उनमें से ये चीजें ही तो 

रोक वाली, निकाल लीं उनसे 

और वह 

प्रेतशाला हो जाता है।

वह हल्का मुस्कुराया और चलता बना।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: अपनी संस्कृति, सभ्यता, इनकी सीखें, इनमें प्रचलित रोक टोक और समाज का लिहाज यही तो हमे आदमी से मनुष्य बनाता है। इनको धारण करने से जीवन का अर्थ, मृदुता, आनंद मिलता है नहीं तो जीवन शुष्क, बेरस, निरंकुश हो प्रेत हो जाता है।

पग दो: प्रेम

शब्द होता, 

प्रेम  

तो मैं पढ़ ही लेता,

चादर जो होता 

प्रेम 

तो मैं, ओढ इसको 

सो ही लेता।

पर क्या करूं!   

कैसे इसे बाहों भरूं! 

आता नहीं,

मेरी बांह छोटी रह गई है।

कुछ अलग है.. 

यह.. क्या करूं

रूह में चाह कर.. 

भर.. पाता नहीं.. 

मैं क्या करूं।


सांसों में कैसे 

इसको बसाऊं 

यह सोचता बैठा रहा!

दिन भर वहीं मैं..

इस जिंदगी की शाम में 

क्या! देखता हूँ..

बहुत छोटा,एक परिंदा 

मेरे सामने 

एक सुगन्धित पुष्प में

चुप बैठकर, छोड़कर 

दुनियां ये सारी 

मुख मोड़कर! 

पुष्प में बंदी हुआ।

पूछता मै,रात सारी पास में 

प्रेम क्या है! जपता रहा

उसने कहा 

अरे!

जी इसे!

तूं जिंदगी में!  

यह प्रेम है,रस जिंदगी का।

जिंदगी में जी इसे।

जय प्रकाश मिश्र

पग तीन: असलियत रंगों की 

वो, 

नाराज़ है क्या? 

क्या खुश है, हमसे..! 

चलो चलते हैं.. मिल के आज

उस, दरिया के घर पे. ....

बैठेंगे, बात करेंगे,

प्यार से, उसे प्यार करेंगे

उसके बालों में उंगलियां फ़िराते 

उसी पर नौका विहार करेंगे।

पूछ भी लेंगे मौके से,चुपके! 

वो नाराज़ है क्या? 

या खुश है हमसे..! 

चलो चलते हैं.. मिल के आज

दरिया के घर पे।


इन बंधी 

दीवारों से बाहर 

कभी तो मिलो उससे ..

उसकी चाहत से कभी 

दो चार तो हो।

वो नाराज़ है क्या

क्या खुश है हमसे..! 

चलो चलते हैं.. 

मिल के आज

किसी दरिया के घर पे. ....।

जय प्रकाश मिश्र


तूं नहीं, यह वस्त्र तेरा, छू मुझे 

रसभूति की, अनुभूति में 

जब डूब जाए...

तो.. समझना.. 

प्यार की “शुभ परिधि” में 

तुम आ गए हो।

जिक्र का झंडा, किसी के नाम का

राज्य में अपने लगाकर, 

फहरता उसे देखकर

भीतर खुशी.. हो, फूटती..,

जब..

तो.. समझना 

प्यार की “शुभ परिधि” में 

तुम आ गए हो।

लरजती.. 

कोमल मुलायम.. 

बांधती.. तुम्हें पाश में हों, 

खींचतीं.. 

राग हैं वे, त्याज्य हैं वे, 

जानना..

प्रेम ताजा, सख्त होगा, 

लुज लुज नहीं रे.. चिपक जाए,

वो मुक्त है खुद, 

मुक्ति का संदेश है रे! 

जब तुम्हे, ऐसा मिले कोई, 

रास्तों में

तो.. समझना 

प्यार की “शुभ परिधि” में 

तुम आ गए हो।

प्रेम... होगा हृदय में

तो मुक्त.. होगा,

बंधनों से, बंध से वह दूर.. होगा

तन में ही, क्यों, 

मन में, उसे आनंद... होगा।

जब तुम्हे ऐसा लगे, किसी साथ में

तो.. समझना 

प्यार की.. “शुभ परिधि” में 

तुम आ गए हो।

फूल, कलियां प्रेम का ही भाग हैं

जिसमें नहीं है प्रेम, वह कंकाल है,

जीवित भले ही, 

भूमि पर 

वह फिर रहा हो, 

पर सच सुनो, जब तक यहां है, 

वह, धरा पर भार है।

कैसे जिएं हम साथ सबके 

रास्ता वह "प्रेम" है,

कैसे मिलें हम साथ सबके 

तरीका वह "प्रेम" है,

प्रेम से, जो हीन है, 

वह धोख* है, 

बस जिंदगी में।

जय प्रकाश मिश्र

धोख * गांवों में खेतों पर कपड़े की मानवीय आकृति असली मनुष्य नहीं।

भाव: जीवन में प्रेम, प्रभु के समान ही आवश्यक है। प्रेम जीवन में सुगंध भर कर उसे महिमावान बना देता है। जब किसी के संपर्क से आप भीतर से खिलने लगें और मुक्ति का आस्वाद पाने लगें तो जानना सच्चे प्रेम से शुभ भेंट हो गई। और प्रेम करुणा से हीन मनुष्य नहीं एक ढकोसला है वह रस विहीन शुष्क और आनन्द से कोसों दूर रहेगा। प्रेमी कभी भी किसी हाल में अप्रसन्न नहीं हो सकता

 आप से क्योंकि वह आप से प्रेम करता है उसे आप से कुछ चाहिए नहीं। आपसे कोई भी अपेक्षा नहीं आपका सुख उसका सुख और आनंद।

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है 

रस.. में तेरे..

देख! तुझको मुझे लगता

फांक.. हो, कोई रसीली, 

आम की मीठी..

महकती…, पास मेरे।

अरे रे...! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन…भीगता.है, रस में तेरे. 

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले।

मेरा तन… सिहरता है, 

आब से, भीग तेरे..

नहा कर, चांदनी हो सो रही

कोई पास मेरे…।

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे। 

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले।

मेरा, मन खिंच रहा है 

प्यार में तेरे उमंगता 

महकती मलयानिली भोर की

बयार में ये नहाता है

साथ तेरे…

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेर

अरे रे! 

बिन तेरे… डोले

मेरा मन… डोलता है,

केशुओं में कृष्णता की छांह ठंडी 

ये मेरा दिल ढूंढता है।

अरे रे! 

बिन तेरे… बोले

मेरा मन… भीगता है, रस में तेरे। 

जय प्रकाश मिश्र

भाव: जब कोई प्रिय लगता है, और उससे स्नेह बंधन हो जाता है तो हमे उसमें केवल और केवल अच्छाइयां ही दिखती हैं। हमारी तर्क बुद्धि और विवेक दोनों शिथिल हो जाते हैं। और हम सम विंदु, मौलिक स्थिति से विक्षेपित हो जाते हैं। यही से राग जन्म लेता है। और प्रेम से विषय बनने लगता है। प्रेम बुद्धि और विवेक को स्थिर रखता है उसे कुंठित नहीं करता मुक्त करता है। बांधता नहीं सुरभित कर अंतर से प्रफुल्लता प्रदान करता है।



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