आज कल जीना आसान नहीं!

आज कल जीना 

आसान नहीं

सहना है, 

हर कदम, हर स्तर पर

जब भी निकलो, यारों 

घर से बाहर या अंदर।


समय तो वही है, पर

इसे किसने लगाए,

ऐसे, बेहतरीन नायाब "पर"

उड़ता है अब बिल्कुल स्मूद, 

पता ही नहीं चलता, 

जब भी जाओ 

ऑफिस, ट्रेन पकड़ने,

बच्चे को छोड़ने, लेने,  

इन्हीं जाम, घिरीं सड़कों पर।


पर सहना! 

कुछ न कहना! 

अद्भुत है ये आदमी का गहना! 

मानो मेरी…ज्यादा या, थोड़ी 

खुश! रह कर सहना, 

भीतर से,व्यथित न होना

और उन लाचार,बेकार, 

बूढ़े, बच्चे, अपाहिज,बीमार 

नवसिखुओं को क्षमा करके 

धन्यवाद कहना…

जिन के कारण आपको 

जीवन के इन्हीं संकरे रास्तों पर 

कुछ पड़ा हो कुछ सहना...।


अद्भुत, महकता, 

सुंदर, ताज़ा फूल खिला देता है, 

जैसा प्रकृति भी नहीं खिला सकती।

उन परेशान, हताश, घबराए, 

किंकर्तव्य विमूढ़ चेहरों पर

तुम खुद देखना! 

कैसे खिल जाते हैं!  

आभार से झुक जाते हैं! 

अपनी सुदीर्घ व्यथा 

एक क्षण को भूल जाते है।

और आपको 

अपने भीतर, सच कहता हूं

देखना!  

यह कितना बड़ा, बना देता है 

गुदगुदाकर अंदर से 

संपूर्णता में खिला देता है।


तब आप कैसे ऊर्जित हो, 

पॉजिटिविटी में शुभस्नान करते हैं

एक अलग आनंद में 

जी उठते हैं।

आदमी और बड़ा,कैसे बनता है? 

यही तो है वह बड़प्पन!  

जिससे कोई 

अपने भीतर से बड़ा बनता है।

उसी को सहना, क्षमा करना, 

और खुश होकर, 

उसी प्राणी को धन्यवाद कहना

बहुत बड़ी बात होती है

कभी कर के देखना।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: निश्चित ही हम अन्यान्य समस्याओं से घिरे हुए हैं पर हम अपनी दिव्यता को इन स्थितियों में भी अनुभूत कर सकते हैं और उसके लिए बर्दास्त करना सहना एक तप है और क्षमा करना धन्यवाद कहना अपने पीड़क को ही, हमे सच में बड़ा बना देता है। तभी हम अपने अमृत की दिव्यता को अनुभूत कर पाते हैं। और अपने भीतर आनंद, उमगता है साथ ही बड़प्पन का भाव भी आता है।

पग दो: राय बहादुर

भाव: जोश में होश ज्यादा आवश्यक है। राय देने वाले उकसाएंगे जीवन में उनसे हमेशा सावधान रहें। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें आनंद लें।

वो दरिया… था! 
जोश.. था उसमे, रवानी.. में बहता था 
आगे अपने, किसी को…
कहां… गुनता… था।
देखता था! जिस ओर
समतल… कर देता था।
एक आया उधर, "राय बहादुर"
धीमे से बोला… 
अरे तूं! दरिया से डरता है! 
कूद जा.. हरा इसको..
ये दरिया कुछ भी नहीं है..।

उसका क्या जाता…, 
उसे केवल कहना था
दरिया का भी, क्या… होता..
एक और को… 
बहा लेता संग में।
इसलिए.. 
होश! जरूरी था, 
उसको, 
जिसको उकसाया था
मुफ्त के राय बहादुर... ने
बहता तो वो.. जो कूदता 
दरिया में
उनका क्या जाता है 
जो बस किनारों पे बैठ,
हवा में बातें, रायबहादुर बन 
करता रहता है।
जय प्रकाश मिश्र

पग तीन: मां 

मां नाराज होती थी..

कोई एक राज.. रखती थी,

मेरी आहट परखती थी

नजर का अक्श रखती थी।


बना मैं, ढीठ..ही रहता

सुधरता था नहीं जब तब 

चुप!  चुप!  वो वहीं रहती.. 

नहीं कोइ बात करती थी।


लपेटे... हाथ में पल्लू 

आंचल को संभाले वो

दरवाजे से परे होकर  

कहूं मैं क्या सनम तुमसे

आंखे लाल कर कर वो

वहीं छुप छुप के रोती थी।

मेरी मां सच में ऐसी थी।

मुझे कुछ इस तरह से वह

सही रस्ते.. पे रखती थी।

जय प्रकाश मिश्र


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