उल्लसित हृदय के आगे, जग छोटा सा दिखता है,
अतिशय सुख से त्रस्त हृदय
अभिलसित आंख मुंद जाती,
चेतना शून्य हो जाती है तब
रस.. समाधि लग… जाती।
बन जाती है सेज स्वर्ग तब
मन की गति… रूक जाती
अनुभव मात्र शेष बचता है
बुद्धि….. बिलग हो जाती।
बिंध जाता है.. हृदय पटल
जब नर्म कुटिल.. कांटों से
पीड़ा प्रिय कितनी लगती है
बिँध तीक्ष्ण नयन बाणों से।
रूक जाता हूँ, और खोजता
किसमें कौन बिंधा है,
कितना तन है किसका मन है
कुछ भी पता नही हैं।
तन ले, मन की यह उलझन
जब नदी मध्य जाएगी
समय सलिल की धारा से उस
क्या पार उतर पाएगी।
उल्लसित हृदय के आगे
जग छोटा सा दिखता है,
इन उम्मीदों में बंध कर
नभ बौना सा लगता है।
उनके संकल्पों में तो
सागर सिमटा जाता है,
कदमों के नीचे उनके
धरती बौनी लगती है।
बन पाती काश! सुनहरी
बगिया रस भरी रसीली।
कुछ सुमन अधखिले हिलते
मुसुकाते मुकुलित होते।
जय प्रकाश मिश्र
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