बह-रूपिया जिंदगी! बाज़ आए तेरी फसाहत से,
चल परे हट!
बह-रूपिया जिंदगी!
बाज़ आए
तेरी फसाहत से,
हंसने, रूठने ठनकने, ठसकने.. ,
तिस पर भी मान जाने से।
अजगर की तरह, कसती,
छलती, छनकती
जुआरी के अरमानों सी,
मचलती,
उछलती, फुदकती,
किलकती,
बारंबार दिल लुभाती,
पास.. हिये तक बुलाती।
सोते जागते, बहुरंगी...,
सुनहरी,
सपने बुनती..., दिख जाती।
दुःखिया के जीवन में
बिन बुलाए,
रोज रोज कराहती, कंहरती
रोती, बिलपती, बिलखती,
बिखरे.. बेजान सामानों.. सी,
पलक झपकते ही बिखर.. जाती।
देखा है तुझे..
खोते.. कभी अपनापन,
कभी अपनों को..,
बांधते.. गमछों में कभी मुकद्दर को..
कभी खट्टे, मीठे, तीखे सपनो को।
आए थे ढूढते स्वप्न,
हरे भरे रंगों... का,
तेरे संग...
यहां आकर देखा
तेरे अद्भुत.., निराले,
अनदेखे... ढंग..।
तूं वो... नहीं!
जिसे मैं.. जानता था ,
जिसे मैं.. जीता था,
अनुमानता.. था।
तूं कोई.. और निकली,
सच कहूं तो
शातिर से आगे की,
शातिरिनी निकली।
आया था पूरने
अपनों का अरमान,
बहाकर! अपना श्रम-सीकर,
तेरे, इन कठोर पत्थरों के बीच,
देता इसे, पूरा सम्मान!
पौध उम्मीदों की.. सींचता,
बूंद.. बूंद..
शायद इससे वो सारे.. लोग
संजोया सुख.. पाते,
चिर.. दुस्सह दुख...,अपना पुराना
पाते भूल!
इसलिए
भरोसा देकर..
मां बाप बहनों का विश्वास लेकर..
अपने भुजदंडों पर गर्व रख कर,
चला था।
अपनी पूंजी तो
यह तन ही तो थी,
लेकिन आज जाना,
इसकी जरूरत यहां किसी को
रत्ती भर भी, न थी।
लो जा रहे हैं, छोड़ तेरे सारे अफसाने
अब निकल रहे फिर वहीं
तूं माने या न माने।
पर बड़ी आस लिए आए थे
पास तेरे, ले के
जिंदगी की फरियाद,
अपनों का आशीर्वाद।
चल, तुझे सलाम करता हूँ,
अरे! चल न, वापस,
अपने घर चलता हूँ।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: आज नौकरी, रोजगार, आजीविका कमाना आसान नहीं रहा। शोषण और दोहन नियोक्ता निजी और पब्लिक क्षेत्रों में खुलकर कर रहे हैं। कामगार चाहे श्रम के हों या मस्तिष्क के दोनों समस्याएं झेल रहे हैं। मां पिता अपनी संचित निधि खर्च कर पढ़ाते लिखाते है फिर भी बच्चे कामयाब हो पा रहे। विकट स्थिति बन रही है। अतः कुछ तकनीक लोकल लेवल पर आनी चाहिए जिससे लोग कुछ तो इंगेज हो सकें।
पग दो: मौन की शक्ति
वो चुप खड़ी थी सामने
मुंह बंद था..
पर, बात करती
उंगलियां उसकी मेंरे संग..
प्रश्न पर प्रतिप्रश्न.. करती जा रही थीं,
खुश.. हो रही थीं, एक क्षण
दूसरे, शरमा.. रही थीं।
मन मेरा, वह!
मौन होकर, पढ़ रही थी,
हर एक क्षण को पलक भीतर
संजोती
कनखियों से ताकती, मुसका रही थी।
मैं जानता था।
इस तरह, चुप देखती वह
मन-देहरी, की
ओट लेकर
भीतर ही भीतर
सपने सजीले कहीं, बुनती, जा रही थी।
क्या करूं
बहती नदी, छलकती,
छनकती
आवाज करती, तोड़ने को तत्परी,
सारे किनारे, थी खड़ी,
बदली घिरी, किसी ओर से
ठंडी हवाएं भी चलीं..।
वह वक़्त भी, क्या वक्त था..
धार पर! मझधार पर!
संवेग लेकर, किस तरह वह थी
खड़ी।
चढ़ चला वह,
बह चला वह!
देखते ही देखते ओझल!
हुआ वह..!
वह! देख सकता था उसे..,
वह जानता भी था उसे..
यह... नदी है,
एक दिन, उफनाएगी, सारे किनारे,
तोड़कर।
उसे, दूर लेकर जाएगी।
क्या मझधार में डुबाएगी?
सोचकर मैं डर गया!
उसके आगे क्या करेगी
यह नहीं वह जानता था।
मैं मुक्त था,
मैं मानता था,
पर बहा मैं हाय कैसे..?
प्रकृति के संग जा रहा था।
मजबूर था क्या?
क्या?
बिल्कुल नहीं..
प्यार में माधुर्य में बंध जा रहा था..
कौन सा यह तंत्र है,
कौन सा यह मंत्र है
जो बांधता है, मन सभी का
शांति... से, मौन हो..
ज्ञानियों का, मुनि जनों का
जो चाहते हैं नहीं बंधना बंधनों में
कैसा जटिल संयोग
कैसे अचानक
रूप लेकर, शांति से, सद्भाव से
सहमति से मुझको,
हाय सुख से
बांध कर
संग मुझे, मेरी मंजिलों से
मान से मर्याद से, भाव से विचार से
दूर लेकर जा रही है।
क्या बदल सकता हूं मैं?
एंट्रोपी, है ये
इस काल की, इस वक्त की
इस स्थिति की
शांति है क्या इसी में, मैं सोचता हूं।
स्थिति और समय कुछ ऐसा रहा...
मैं बह.. गया
स्वीकार करना,
तड़फड़ाता, विद्रोह करना
भाग आना,
विध्वंश का कोई नाच करना
सबकुछ मेरे तो पास था।
पर अलग था, यह उस व्यवस्था से
जो मुझे लिए जा रहा था।
यह स्वभाव था उस प्रकृति का
स्वतंत्रता तो वहां भी थी,
परतंत्रता कोई नहीं थी
पर मन मेरा,
पूर्व की उन रूढ़ियों से
तोड़ती इन रस्सियों को जा रहा था।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: मौन की भाषा ज्यादा प्रभावी और कारगर होती है, चुपके से मन, हृदय, और विवेक को भी बांध लेती है। और आप निःसहाय हो बंध जाते हैं। बड़े बड़े लोग इस भाषा में ही बंधे अंधे हुए यह प्रेम और करुणा भी हो सकती है।
मेरा मानना है कि ठुकराने से ज्यादा श्रेयस्कर अपनाना, प्रेम करना, स्वीकार करना पॉजिटिव होना, कंस्ट्रक्टिव होना ही है। लड़ाई, निराशा, उपेक्षा ठीक नहीं।
Comments
Post a Comment