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Showing posts from September, 2024

एक लघु कथा उसकी, जिसका "वो" ही है सहारा

आज की  भी , सुबह हुई ,  शानदार थी,  हवाएं, वे ही थीं,  जो जगातीं थी उसे मुद्दत से, नर्म, शीतल, ताज़गी लिए खुशबू भरी। बैठा, देखा...  चारो तरफ, उम्मीद से!  हर नई सुबह को, ले के,  हर एक में, होती ही है,  नई किरणों के साथ! नई उम्मीदें!  पर, कुछ खास नहीं। जो मिला, बचा कल का,  जल्दी खाया,  तैयार हुआ,  जल्दी जल्दी  में चला,  काम, कुछ दूर था,  इधर, कुछ दिनों से लगा। पहुंचा, बोरी लिया, मन को समेटा  लपेटा,  हाथ में लिया,  सर पे  लाल कपड़ा, गमछा बांधा, ढोने, भरने, लाने, गिराने का  सबब रोज की तरह  यूं,  आज भी शुरू था हुआ। पांव धरती से,  सट सट के,  घिसटते,  चलने लगे,  चेहरे पे उसकी,  छुपी कहानी  के अनकहे शब्द, चुपचाप उकरने लगे। थका था, कई दिन से बेमन, से भी, आगे बढाने पर  पैर थे, आगे बढ़ने लगे। चार छह चक्कर मारा, सामां भर भर के। इस बार बड़े, घने, चिलबिल  पेड़ के नीचे, सुस्ताने बैठ गया, थका था, झपकी आई लो, सो ही गया। साथ वालों ने देखा, सोचा, सो गया, सो...

चलो मिलते है! आज कहीं!

पुष्प प्रथम: जीवन सार कितना अभिनय!   कितना सच!  जीवन अपने संग लेकर, आज यहां आ पहुंचा है;  पीछे! जगमग,  जग!  दिखता है आगे मेरे कर्मों का  फल!   क्या निर्मल! मुझको दिखता है ?  भाव: जीवन में मानवता की रक्षा का दृष्टिकोण और आत्मतुष्टि की दृष्टि सदा ध्यान में रखें जिससे अंत में प्रायश्चित की स्थिति न हो। द्वितीय पुष्प: काल का जन्म उत्छाल था यह,  विपुल के जल राशि का, सागर सलिल का, लहर बन कर, उछलता है, खेलता है...  काल ही है जन्म लेता..  दृष्टि के परिवर्तनों में। शांत, अद्भुत शांति,  कल कल बह रही थी, रात दिन का वह नियंता चुप खड़ा था,  हाथ जोड़े, अंतरों में समय जिनमें पल रहा था  बढ़ रहा था,  सृष्टि के परिवर्तनों में। भाव: परिवर्तन के भीतर ही मानव ने समय की रचना की है और समय की माप स्थापित किया है। श्रेष्ठ लोगों ने स्वयं शांत हो संयम से दृष्टि को स्थिर कर अनुभवों से इसे अंतरों में सतत ध्यान लगा कर चुप शांत मस्तिष्क से पकड़ा था। तृतीय पुष्प: पंच तत्व  'पंचीकरण'  मिल रहे थे  जल, पवन, आकाश, धरती अरुण...

दर्द…

दर्द…  सहते सहते.. जुबां.. हलफ में रहते..  परिस्थिति के मारे  कुछ.. ऐसे बेजुबान होते हैं.. मितरों! दिल  से नहीं!  दिमाग  से भी कहता हूं…. सुनो!  वे.. ' दर्द-ही' की, प्यारी जुबान होते हैं। सब्र का दरिया!   खोजते हो तुम!  तो.. आओ यहां;  चुपचाप.. कैसे बहता है वह..  देखो यहां..!   गुजारिश इतनी ही है याद रखना!  किनारे कमजोर हैं इनके! अब 'दबाव' सहते-सहते। आंखों से, तुम्हारे चलके  दिल तक पहुंचने से पहले टूट के...  बह न जाएं, भीतर तेरे  इसलिए दर्द को देख, एक मत होना टूट जाएगा, गर बंध तो दोनों की आंखों में, आंसुओ भरा विप्लव होगा!  छलक जाएंगे आंसू बे वजह  बूंद बनके, दिल भारी होगा। दर्द!  दर्द….  कैसा होता है! तुम देखोगे?  तो सुनो! दिखाई नहीं देता, भीतर सालता है,  वेधता है, छा जाता है, अंधेरों की तरह!  भारी कितना होता है!  उठा के देखोगे?  भारी हाथों को नहीं,  दिल को होता है,  उसे दबा के रखता है ऊपर उठने ही नहीं देता! समय की पिसती,  घिसती पहियों के नी...

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

शीर्षक: अपने देश की नाम एक नदी थी ’सिंधु’,  बहने सात थीं  सप्तसैंधव नाम था जगत में विख्यात थीं। जीवन प्रणाली हिंद की थीं,  बहती हुई वह प्राण थीं। इस भूमि पर बहतीं,  बनातीं, अमिट रेखा,  युग युगों से हिंद की सीमा थी वे!  सीमांत थी!    भारत यहां तक!   बोलतीं वे! आदि से  हर भारती को, स्नेह जल से सींचतीं थीं  खेत सारे भारती के, दुश्मनों का काल थीं। कुछ कबीले पार थे  ईरानी वहीं पर  बोलते थे फारसी में    स को ह वो बस कर दिया और कह दिया  सिंधु को यूं हिंदु उनने। कुछ इस तरह जो रह रहे इसपार थे हिंदू हुए,  फिर बाद में स्थान से जुड़ते जुड़ाते  आज हम इस पार सब  हिंदु स्थानी से आगे हिंदुस्तानी हुए। नाम हिंदुस्तान इस देश का  कुछ पड़ा ऐसे। एक नदी थी  हिम भरी थी हिमनद हुई  बदलती यह काल क्रम की भट्ठियों में  देखते ही देखते हिन्नद हुई कुछ कबीले तीर पर  बसते थे इसके  बहुत दिन से कुछ दिनों के बाद उनको लोग हिन्नदू कहने लगे आज वे ही सब यहां हिंदू हुए। फिर सुनो क्या क्या हुआ! ...

प्रेम कैसा मूक है!

पुष्प प्रथम: कागा!  तूं मत बोल!  कागा!   तूं मत बोल!  बैठ मत! द्वारे;  हिलता है, हिय,  सच कहती हूं,  अन्तस.. छूती,  गहरे तक.. हैं, तेरी ये करुण पुकारें!  भीतर भीतर  क्या क्या लिखतीं,  मन ही मेरा जाने,  तूं क्यों बैठ! कुरेदा करता!   स्यामल, मीठी बातें!  क्या तूं! “सब कुछ” जाने?  कागा!   तूं मत बोल!  बैठ मत! द्वारे। स्याह रंग तेरा है शायद,  तेरी करतूतों से, कर्कश ध्वनि भी मिली हुई है तेरे ही कर्मों से। बैठ सोचती, मौन खड़ी हूं,  पर कयास करती हूं, कौन पथिक आने वाला है मैं सोचा करती हूं। कांव कांव की रट तेरी यह मेरा मन उरगारे, कागा!   तूं मत बोल!  बैठ मत! द्वारे। याद पुरानी  एक एक कर चिटपट सी चलतीं हैं याद तभी आता है कोई पुरवाई बहती है रुनझुन रुनझुन पायलिया यह छम छम ले बजती है  रिमझिम बूंदे मन पर गिरतीं  अंदर भीग रही हूं बीच दुपहरी, उमसभरी यह  आंखों देख रही हूं। भीग चुकी मनभर यादों में तन पर एक न छींटा इसीलिए तूं कभी कभी  लगता है मुझको मीठा। फि...

बालिका सी भीगती, प्रकृति चुप है, शांत कितनी!

वो कौन है?   जो, बूंद बन बन बरसता है!  मधुर रस!  व्योम से इस। शीतल धरा करता हुआ, छू रहा तन को मेरे,  मैं भीगता हूं, हृदय की गहराइयों तक, पत्तियों की कोर से  जो टपकता है!  त्रिदल की  नवपत्तियों के पृष्ठ ऊपर, तरल मोती,  सा लटकता झूलता है। स्फटिक मणि सा दीखता,  हीर कण बन चमकता है;  दूब की इन फुनगियों पर। अंगूठियों में,  नग को जैसे धारता है। बेतार की  बीणा बजाता!   भ्रमर की धुनि को उठाता!  कोंपलों पर गिर रहा है। झर.. रहा झरना,  अचानक,  घर बगीचे देखता हूं;  बालिका सी भीगती..  प्रकृति चुप है,  शांत कितनी!  पेड़, अब उड़ने को हैं;  हिल रही है पत्तियां  कुछ इस तरह  हिलडुल  मचाती शाख पर, फड़फड़ाते पंख जैसे पक्षियों के। या  बुलाती हैं  मुझे आ पास आ!  भीग जा तूं भी मेरे संग  खुशियां मना। नन्ही नन्ही  पत्तियां है  सरगम बजाती  अंगुलियों से,  मचलती उठ गिर रही है  बूंद के स्पर्श से। पुष्प  नख  क्षत   झेलते वर्षात का...

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता

आडोलित  कर्णो के कुंडल  उषस मुख की सुंदरता पर हिल-डुलती,  चमचम यह क्षणक्षण,  पैजनियां की बजती छम छम परिवर्तन!  छवियों में,  रूप बदलता लावण्य  ढुलकता  पृष्ठों पर!  क्या सुंदरता है,  तो!  उषा जैसी ही सुंदर!   लालिमा लपेटे,  कौन खड़ी है!  मेरे अंदर! आ बैठी है!  गाढ़े नीले  पट से चलकर, पूरब में द्द्युति धारण कर कर!  आभा बिखेरती!   टिम टिम करते  तारों के,  बुझते आंगन में,  नव्य नवेली!  रेशम रेशम सी, यह नरम मुलायम!  कौन खड़ी है!  द्वारे मेरे!  आज सबेरे! दर्शन देती है। सहलाती,  छू कर पलकों से  सोये फूलों का स्वप्निल मन, स्वर्णमयी मुस्कान लिए  वरती है  तन मन।   सबके ऊपर  पसर रही  बेसुध कर जीवन। ओस में भीगी  कलियां  कैसे सिहर रही हैं देखो तो  आने से, इसके। सुबह सबेरे  चिड़ियां सारी चहक रही हैं। कहां गया वह  वैदिक ऋषि जिसने देखा था,  उषा का... यह रूप चिरंतन!  बैठा बैठा,  मैं उसको ही सोच रहा...

प्यार करो, हां कर सको तो!

सागर ‘बड़ा’ होता है बाहर से  ज्यादा ...... “भीतर..” होता है। मथता है.. ऊपर निशिदिन  जितना.. उतना ही.. चुप चुप  भीतर रहता है। माना!   विस्तृत है बहुत!  गहरा कम तो नहीं। कोई  कुछ भी कहे  कुछ भी हो, टिकता तो  मिट्टी की जमीं पर ही,  है   ये भी कहीं। बड़ा होना  बाहर से कम भीतर से जादा जरूरी है। पर  इसके  लिए सागर बन हर मिलते, नदी नाले को  एक सा, इज्जत देना, प्यार करना भीतर जगह देना,  भी  उतना ही लाजिमी है। गहराई और विस्तार  दोनों  न हों तो ताल के पानी सा  सागर भी,  गर्मियों में  या कुछ लोगों में आंखों के पानी  सा  सूख ही जाय। उम्मीद से रहो,  सागर  बनने की  कोशिश तो करो। इतना.. पानी,  मात्र वर्षात से  नहीं आता!  कुछ भीतर से,  पसीजो!  अपने!  हां  यह पानी  तुम्हारी आंखों में दिखे!  मुंह की मिठास से, हर वक्त झरे!  जिससे मिलो, डुबा लो, खुद में उसको!  मैं देख तुम्हें! खुश हो पाऊं!  हे प्रिय! तुम ऐसे लहरो!...

न मन बचता न कोई गति तरल अनुभूति होती है,

प्रथम पद:  बहती नदी,  बेटी है इनकी हैं नहीं ये रजत,  ये तो बालुका कण हैं!  पर शीतल,  कहां कम हैं। छू सको, तो,  छू के देखो!  बैठ पाओ, पास बैठो,  नजदीक से देखो इन्हे हर राग से ये दूर...  एक.. एक.. अलग हैं। साथ इनका! एक पल का!  राग इनका! एक पल का!  जब तलक तुम साथ हो ये साथ हैं!  तुम उठ गए!  तुम चल दिए!  झाड़ो नहीं!  चुपचाप ही, आप ही,  कुछ दूर चल कर तुमसे अलग,  हो गए,  देख तो!  ये साधु हैं!  निरलस है!   सचमुच!  डूब कर!  जल के भी भीतर!  जल से विलग हैं! देख तो। आर्द्रता से दूर हैं   आर्द्रता में बास करते। पास हैं,  नजदीक सबसे,  संबल दिए हैं!  बहती नदी को,  जीवन लिए,  जो बह रही है, हम सभी के। पर मौन हैं,  चिर शांत हैं,  भस्म को, अंग में लगाए  पहने हुए हैं  बहती हुई, भागीरथी को। यह बहती नदी,  बेटी है इनकी पाषाण कण हैं, पालते थे,  ये कभी  छाती पे अपने  जिन  हिम कणों को,  आज वो,  ऊपर स...

जब आग जले भीतर ही कभी तो..

पग प्रथम:  अक्टूबर की एक शाम एक, चपटे मुंह वाली  लड़की सी,  यह शाम ज्यादा नहीं  दस बारह बरस की, सर्दियों में  दुमती दुमती,  पार्क रेलिंग ऊपर,  आ बैठी। गीले, क्रीम पुते,  चौड़े चेहरे में, सहमी सहमी  दबे पांव आगे बढ़ती, धुंधुलाते ओस की नम  चादर  अंकों में  दबाए,  काली तितली की धुपछैयां सी जादुई पंख  पसारती,  आहिस्ता आहिस्ता हर ओर चुपचाप, आगे बढ़ती,    कुंजों के भीतर, पत्तियों में लुका छिपी खेलती, कुछ डरती,  कुछ मुस्कुराती, हंसती,  यह  अक्टूबर की  एक बेहतरीन शाम थी। पग द्वितीय:    यह जिंदगी है!  मैने, बड़े  'स्नेह  और आदर' से  उनका  'हाले-दयार,' पूछा वो, महकते फूल से  नाजुक,  पंखुरी ही थे;  वर्षा जल के ऊपर गिरते ही,  अंदर ही,  अंदर तक,  बेसब्र हो टूट गए!  रुंधे गले! बहुत धीमे!  बोले!  नहीं बाबू!   यहां अभी सब ठीक 'ही' है!  अच्छा है,  अभी ऐसी दिक्कत! नहीं  है!  आप हैं, सब जानते ह...

तमन्ना वैसे ही बैठी थी वहीं, चुप! छुपके!

पायदान:  प्रथम:  अनछुए पहलू जिंदगी के सारे पन्ने  खोल डाले आज उसने एक दिन में,  सलीके से लगाया।  ध्यान से, गौर से देखा, सबको  आज भी कुछ पन्ने  सादे, साफ, अनछुए, उजले,  वैसे ही रखे पड़े थे, बचपन के  इंतजार करते किसी खास की  बस केवल एक छोटे से  शब्द हां की आरजू रखे। तमन्ना वैसे ही बैठी थी  वहीं, चुप!  छुपके!  आज भी,  पूरी दुनियां से !  भाव:  बचपन हमेशा हर उम्र में वैसे ही जिंदा रहता है, कुछ चीजे किसी के एक छोटे से उत्तर की प्रत्याशा में इंतजार की खूंटी पर वैसे ही रह जाती हैं। पायदान द्वितीय:    दुनियांदारी वो चालाक था,  उसने दुनियां देखी थी। जलालत और जहालत  ने धोया था उसको  बहुत अच्छे से। तभी तो सब छोड़ उसने  जादूगरी सीखी दुनियां की खुद से, अपनो से दूर हुआ…  आखिर तक… और सच है  दुनियां के लिए ही दुनियां खरीदी उसने  आखिर तक।  भाव: शांति से, अपनों के प्रेम से वियुत जीवन, आनंद में नहीं रह सकता। संसार को जीवन देकर खरीदना पछतावा कारी होता है। पायदान तृतीय:...

यह कुछ नहीं ही, प्रेम है, विश्वास में,

मैं खड़ा  एक बिंदु पर था  सृष्टि में  बहुत छोटे, एक कोने देखता और सोचता!  सृष्टि क्या है?  और कैसे चल रही है?  भेदने की कोशिशों में…. गूथता था, मनके सारे,     (beads) चमकते…हिलते हुए… हर क्षण बदलते!   रंग, द्युति, आकार..! लेते..  छोड़ते!  नेत्र भीतर बन रही  छाया हों कोई…  बदलती किसी दृष्टि में,  इस सृष्टि के। प्रश्न था?   पर जटिल था!  मैं अडिग था। कुछ तो होगा, कहीं होगा?  खोजता हूं, डूबता हूं!   आज फिर एकबार  चल इस सृष्टि की  गहरी तली में हेरता हूं। डूबता मैं  जा रहा था देखते ही रुक गया, वह शकुंतला थी,  दुष्यंत से जाने न कितनी बार झुक झुक…  पास से कुछ कह रही थी। पहचानते हो नहीं मुझको?  इस भरत को!  पुत्र तेरा है! तेरी मैं भार्या हूं!  इनकार करते हो,  तुम इतनी बार!  तो.. लो..  अब.. सुनो!  मैं पूछती हूं! आदि के सर्वोच्च से!  बस! सुनो!  तुम सोचते हो… मैं अकेली थी वहां.. और  मात्र… तुम थे!  एक वृद्ध था!...

कोई रास्ता तो दो उसे, वो कहां जाए।

दूर कर दो,  इस सभ्यता से  दूर कर दो,  तुम मुझे;  देख कर हैरान हूं!  सब राज इसके!  रंगी हुई, यह रंग में कलेवर पहनती, नित नए!  बदलती है किस तरह,  संग में ऐंठन लिए!  आत्मा को बेंचती है,  हनन करती! वेधती है,  न्याय को!  रोकती है, सहज को!  प्रकृति के भी, प्रवाह को!  खरीदी हुई है, बिक चुकी है,  स्वार्थ पर, हा! स्वार्थ पर!  हाथ उनके!   जिनको बनाया, मिल सभी ने विश्वास से निज वोट देकर यह कुछ करेंगे,  हल करेंगे, दिन फिरेंगे!  पर क्या करें!  शक्ति दी, इज्जत दिया,  सौंप भी सब कुछ दिया। अब क्या.. करे! हाय!  कितना चाहिए! इनको!  नहीं यह समझ पाते, भर लिया  अपने गले तक, सांस तक ये ले न पाते। 'जाने न कितनी पुस्त इनकी श्राप से अभिसप्त होंगी, जिनके लिए ये आज से ही  रात दिन पूंजी कमाते।' दुखित हैं, सब!  देखकर सब! पर क्या करें?  पी गए  ये भाग्य सबका,  खा गए ईमान!  अपने साथ सबका;  देख मरने मारने पर आ गए!  क्या एक हैं, ये आदमी!  लग रहा तुमको क...

कैसे कहूं! क्या नाम दूं!

प्रथम पुष्प: वह कहां है अलग मुझसे कैसे कहूं!  क्या नाम दूं! वह नमी है;  नमी बन, नस नाड़ियों में आ समाई… जितनी जगह है;   वह कहां है मुझसे अलग है,  ... मेरी कमी है। भाव: कुछ लोग इतने सहज, सरल होते हैं, आप उनसे चाह कर अलग नहीं रह सकते। वो आप से कहीं न कहीं कैसे भी जुड़ ही जाते हैं। जैसे नमी हर चीज में अकारण आती है, हमारी कमी भी हममें अनचाहे रहती ही है। और जितनी जगह जैसी प्रवृत्ति हो पैदा हो जाती है। द्वितीय पुष्प:    छूकर गई वह!  आज....मेरे पास,  पहली बार.. आई, मुझको,  दी.... दिखाई। आंख भर कर  देख पाता!    जब तलक मैं!  चू गए!   दो बिंदु बह कर!  गिर गए,  रस अधर छूते मौन की  भाषा में कहकर!   सब समझकर,  प्राण को झकझोरकर,  छू दिए  अंदर से !  सच!  वो आज मुझको। भाव: संबंध सभी का सभी से, आंतरिक होता है। यह भाव और भावना sep बना एक मर्म है। जिसको हम अपना जानते हैं उसकी हर चीज, बिना उसके बोले अनुभूत हो जाती है। मां का स्पर्श निद्रा में भी हम पहचानते हैं। अपनो में एक सुगं...

श्वेत सीधी लाइने अक्षर बनाती दृष्टि के नेपथ्य पर कुछ लिख रहीं हैं।

पुष्प प्रथम:  सत्य दर्शन  (भावार्थ लास्ट में दिया गया है) वह सुदूर… तक खिंची  चट्टान के चौड़े.. सीने  ऊपर फैली, नीली,  स्निग्ध् सतह पर  किरणों  का आवरण ओढ़े,  चम चम चमकती,  जल राशि, अद्भुत थी!  देखते ही आंखें  शीतल!  मन प्रसन्न!  स्मृति/बिस्मृति का खेल  देखता! डूबता, मैं  उसके अंदर अवाक!  खड़ा था। लहरे  मुस्कुरातीं  हल्के हल्के बहतीं  बाल-शिशु सी सुलभ  क्रीडाएं करतीं, आगे बढ़तीं, पीछे हटतीं  कल कल ध्वनि से मुकुलित हो  बातें करती, विहंस बहतीँ। क्षण प्रति क्षण अलग. .. क्षण में मिलतीं। स्कूल ड्रेस में सजी बच्ची सी हिलती मिलतीं। नटखट बालिकाओं सी जल उर्मियां मचलती रहतीं। कैसी प्रशांति, कितना प्रसार सु-अच्छ, निर्मल,  निष्कलुष प्रसन्न,,  शांत, अवसन्न निष्कंप,  दर्पण सी संपूर्ण आकाश को समातीं भीतर,  नटखटी। उज्जवल, हीरक  कणों का सम्मिलन,  दूसरा मानसरोवर ही था  क्या मेरे सामने! मुझे नहीं पता!  बंध गई दृष्टि,  मन, बुद्धि, विवेक,  मैं स्वयं,...