एक लघु कथा उसकी, जिसका "वो" ही है सहारा
आज की भी , सुबह हुई , शानदार थी, हवाएं, वे ही थीं, जो जगातीं थी उसे मुद्दत से, नर्म, शीतल, ताज़गी लिए खुशबू भरी। बैठा, देखा... चारो तरफ, उम्मीद से! हर नई सुबह को, ले के, हर एक में, होती ही है, नई किरणों के साथ! नई उम्मीदें! पर, कुछ खास नहीं। जो मिला, बचा कल का, जल्दी खाया, तैयार हुआ, जल्दी जल्दी में चला, काम, कुछ दूर था, इधर, कुछ दिनों से लगा। पहुंचा, बोरी लिया, मन को समेटा लपेटा, हाथ में लिया, सर पे लाल कपड़ा, गमछा बांधा, ढोने, भरने, लाने, गिराने का सबब रोज की तरह यूं, आज भी शुरू था हुआ। पांव धरती से, सट सट के, घिसटते, चलने लगे, चेहरे पे उसकी, छुपी कहानी के अनकहे शब्द, चुपचाप उकरने लगे। थका था, कई दिन से बेमन, से भी, आगे बढाने पर पैर थे, आगे बढ़ने लगे। चार छह चक्कर मारा, सामां भर भर के। इस बार बड़े, घने, चिलबिल पेड़ के नीचे, सुस्ताने बैठ गया, थका था, झपकी आई लो, सो ही गया। साथ वालों ने देखा, सोचा, सो गया, सो...