प्रेम कैसा मूक है!
पुष्प प्रथम: कागा! तूं मत बोल!
कागा!
तूं मत बोल!
बैठ मत! द्वारे;
हिलता है, हिय,
सच कहती हूं,
अन्तस.. छूती,
गहरे तक.. हैं,
तेरी ये करुण पुकारें!
भीतर भीतर
क्या क्या लिखतीं,
मन ही मेरा जाने,
तूं क्यों बैठ! कुरेदा करता!
स्यामल, मीठी बातें!
क्या तूं! “सब कुछ” जाने?
कागा!
तूं मत बोल!
बैठ मत! द्वारे।
स्याह रंग तेरा है शायद,
तेरी करतूतों से,
कर्कश ध्वनि भी मिली हुई है
तेरे ही कर्मों से।
बैठ सोचती, मौन खड़ी हूं,
पर कयास करती हूं,
कौन पथिक आने वाला है
मैं सोचा करती हूं।
कांव कांव की रट तेरी यह
मेरा मन उरगारे,
कागा!
तूं मत बोल!
बैठ मत! द्वारे।
याद पुरानी
एक एक कर
चिटपट सी चलतीं हैं
याद तभी आता है कोई
पुरवाई बहती है
रुनझुन रुनझुन पायलिया यह
छम छम ले बजती है
रिमझिम बूंदे मन पर गिरतीं
अंदर भीग रही हूं
बीच दुपहरी, उमसभरी यह
आंखों देख रही हूं।
भीग चुकी मनभर यादों में
तन पर एक न छींटा
इसीलिए तूं कभी कभी
लगता है मुझको मीठा।
फिर भी
कागा!
तूं मत बोल!
बैठ मत! द्वारे।
हिलता है, हिय,
सच कहती हूं,
अन्तस.. छूती
गहरे तक.. हैं,
तेरी करुण पुकारें!
सुन सुन तेरी,
खिंचतीं सांसे
अंदर ही अंदर,
रह रह कर।
रह रह आतीं!
स्वांस तुम्हारी,
अंदर भीतर,
भीतर अंदर।
आस तुम्हारी किसके प्रति है?
क्यूं हैं करुण पुकारें!
लगातार तूं बैठ बोलता
किसके मन की बातें।
याद किसे करता है तूं, अब
तेरा राज मैं जानूं!
चुपकर! बैठ!
बोलकर सबको
दिल का दुख देता है।
कागा! तूं मत बोल!
बैठ मत! द्वारे।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: हमारे समाज में कौआ बोलने पर कयास लगाना, किसी के आने को पूर्व सूचना से भी मिला कर देखा जाता है। कोमल और प्रिय प्रकृति के लोग उसकी कांव कांव से अपने प्रिय जन का भी अंदेशा करते हैं और भीतर ही भीतर अलग सा संसार कल्पनाओं में जी लेते हैं।
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