कोई रास्ता तो दो उसे, वो कहां जाए।
दूर कर दो,
इस सभ्यता से
दूर कर दो, तुम मुझे;
देख कर हैरान हूं!
सब राज इसके!
रंगी हुई, यह रंग में
कलेवर पहनती, नित नए!
बदलती है किस तरह,
संग में ऐंठन लिए!
आत्मा को बेंचती है,
हनन करती! वेधती है,
न्याय को!
रोकती है, सहज को!
प्रकृति के भी, प्रवाह को!
खरीदी हुई है, बिक चुकी है,
स्वार्थ पर, हा! स्वार्थ पर!
हाथ उनके!
जिनको बनाया, मिल सभी ने
विश्वास से निज वोट देकर
यह कुछ करेंगे,
हल करेंगे,
दिन फिरेंगे!
पर क्या करें!
शक्ति दी, इज्जत दिया,
सौंप भी सब कुछ दिया।
अब क्या.. करे!
हाय!
कितना चाहिए! इनको!
नहीं यह समझ पाते,
भर लिया
अपने गले तक,
सांस तक ये ले न पाते।
'जाने न कितनी पुस्त इनकी
श्राप से अभिसप्त होंगी,
जिनके लिए ये आज से ही
रात दिन पूंजी कमाते।'
दुखित हैं, सब!
देखकर सब! पर क्या करें?
पी गए
ये भाग्य सबका,
खा गए ईमान!
अपने साथ सबका;
देख मरने मारने पर आ गए!
क्या एक हैं, ये आदमी!
लग रहा तुमको कहीं?
जात इनकी एक है?
क्या यही
सबसे श्रेष्ठ हैं!
धरा पर इस!
कैसे कहूं मैं!
कैसे सोचूं!
कैसे मानूं,
कैसे ये जानूं,
सब देखकर! हैरान हूं!
क्यूं बनाया देश,
इतने!
रंजिशों के घर! दहकते!
धर्म इतने, किसलिए!
कायदे गर नेक थे!
और....
आदमी सब एक थे!
तो धर्म इतने क्यों बने?
प्यास लेकर
घूमता है आज भी वो
भूख लेकर
भागता है हर जगह!
व्याधियों से ग्रसित रहता, रात दिन,
मानवों से दुखी होकर जी रहा!
आज कैसी! जिंदगी यह!
देख तो!
अरे!
रंग, सबके गोरे काले!
जातियां, रहनो-सहन!
कितने तरह की सोच
लेकर जी रहा यह!
होती उबन, खुद से ऊबन!
मिट मरेंगे ये सभी
लड़ कर खुदी में, एक दिन;
इसलिए मैं सोचता हूं!
कह रहा हूं!
माफ कर दे,
भाई मुझको माफ कर दे!
दूर कर दे, तुम मुझे, इस बागबन से।
दूर कर दे।
तुझे होगा नाज़,
मुझको कष्ट है।
रंगी हुई इस सभ्यता के दंश से।
भूख से
व्याकुल हुआ क्यों, भेड़िया,
घूमता है आज क्यों, इन बस्तियों में,
लग रहा है जंगलों में भी तुम्हारा,
राज कायम हो गया है!
अभिशप्त हो जा!
ऐ श्रेष्ठ जन तुम!
इन अबोले प्राणियों के
भूख के इस पाप से! संताप से!
अभिशाप तुम सबको लगे
मेरा भी संग संग,
जो लिप्त है आकंठ
भर कर पेट अपना,
डूबे हुए, फिर भी उसी
घिंन घिनाती बजबजाती
दुर्गंध देती, भ्रष्टाचार की ही नालियों में।
”सर्प बन तुझको डसे, तेरा तुझे धन
तेरे पाप की दुर्गंध, तेरे तन में फैले”।
क्या करूं! मैं क्या कहूं!
चाहता हूं!
भेड़ियों के पास जाऊं,
जंगलों में!
सच!
वही मैं, घर बनाऊं;
बुद्धिमानों, धनी, बलियों,
नकली संतों,
रोग, भोगों
और सोचों
से तनिक विश्राम पाऊं।
बन की राहों पर कहीं
सुंदर निकुंजों के तले,
फूल का मैं घर बनाऊं
प्यार जिसमे खुद पले।
जब कभी कोई बालिका,
जाबालिका;
होकर तृषित, थोड़ी थकित
निष्कलुष अपनी दृष्टि फेरे,
घर पे मेरे,
निष्कलंकित उसके हाथ चूमूं।
मृदुल एक स्पर्श पाऊं,
झूम जाऊं, मन में अपने।
देख उसका स्वावलंबन,
स्वावलंबी निडर तन मन
तृप्ति जीवन की मै पाऊं।
सुख के सागर में नहाऊं।
प्रकृति के संग सहज होकर
जीवन सरित मैं तैर जाऊं।
इसलिए मैं कह रहा हूं,
दूर कर दो, तुम मुझे
इस सभ्यता से
दूर कर दो,
देख कर हैरान हूं!
सब राज इसके!
रंगी हुई, यह रंग में
बदरंग अंदर से अधिक है।
कलेवर पहनती, नित नए!
बदलती यह किस तरह,
देख तो ऐंठन लिए!
जय प्रकाश मिश्र
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