न मन बचता न कोई गति तरल अनुभूति होती है,

प्रथम पद: बहती नदी, बेटी है इनकी

हैं नहीं ये रजत, 

ये तो बालुका कण हैं! 

पर शीतल, कहां कम हैं।

छू सको, तो, 

छू के देखो! 

बैठ पाओ, पास बैठो, 

नजदीक से देखो इन्हे

हर राग से ये दूर... 

एक.. एक.. अलग हैं।


साथ इनका! एक पल का! 

राग इनका! एक पल का! 

जब तलक तुम साथ हो

ये साथ हैं! 

तुम उठ गए! तुम चल दिए! 

झाड़ो नहीं! 

चुपचाप ही, आप ही, 

कुछ दूर चल कर

तुमसे अलग, 

हो गए, देख तो! 


ये साधु हैं! 

निरलस है!  सचमुच! 

डूब कर!  जल के भी भीतर! 

जल से विलग हैं! देख तो।


आर्द्रता से दूर हैं  

आर्द्रता में बास करते।

पास हैं, 

नजदीक सबसे, संबल दिए हैं! 

बहती नदी को, 

जीवन लिए, 

जो बह रही है, हम सभी के।


पर मौन हैं, 

चिर शांत हैं, 

भस्म को, अंग में लगाए 

पहने हुए हैं 

बहती हुई, भागीरथी को।


यह बहती नदी, बेटी है इनकी

पाषाण कण हैं,

पालते थे, ये कभी 

छाती पे अपने जिन 

हिम कणों को, 

आज वो, ऊपर से 

इनके बह रहे है।


थक न जाए पांव इस प्यारी

दुहित का 

चलते चलते

रास्तों में फैल उसके खुद बिछ गए हैं।

भाव:  स्नेह और प्रेम की सीमा असीमित है। वह असीमित सेवा और श्रम का क्षेत्र है। जीवन के सारे पद और गति इससे दूर नहीं। उसी का उदाहरण ये बालुका कण हैं।

जय प्रकाश मिश्र

पद द्वितीय: मैं नहीं रहता कहीं.. जब 

आनंद रस 

बन बरस बहता,

मैं नहीं रहता कहीं.. जब 

शेष.. होता, अनुभवों में। 

तंतु मन के.. फड़कते हैं 

आधार ले 

उसके हृदय के

जा उलझते.. 

साथ उसकी.. धड़कनों में, 

आनंद तब 

सच! बूंद बन कर!  

बरसता हर अंग मेरे।

कैसे मैं खोऊं साथ सच के, 

सोचता हूं,

कैसे मैं भूलूं 

तकलीफें वे! 

मत बरस तूं बन के बदली, 

अब कभी, 

गुजरे खयालों में भी नहीं।

भाव:  आनंद एक पराभाव है, यह भावातीत अवस्था है। अंतःद्रवित और अंतःस्रवित भाव की पराकाष्ठा की परिणति आनंद होता है। कल्पना की परिसीमा किसी बिंदु पर टिकती है। उससे विचारों और भावो की तरी लगती है।

जय प्रकाश मिश्र

पद तृतीय: नई कोई दृष्टि मिलती है

जिसे मैं चाहता था तब

कहां है आज वो बदली

बरसती टूट कर थी वो

कोई सपना लिए मन में।


शमित होती हैं इच्छाएं,

नहीं कोई बात बचती है,

सिमटता अंतरों में जब

उसे तब शांति मिलती है।


न मन बचता न कोई गति

तरल अनुभूति होती है,

नया सा जन्म होता है

नई कोई दृष्टि मिलती है।

जय प्रकाश मिश्र

Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता