श्वेत सीधी लाइने अक्षर बनाती दृष्टि के नेपथ्य पर कुछ लिख रहीं हैं।

पुष्प प्रथम:  सत्य दर्शन 

(भावार्थ लास्ट में दिया गया है)

वह सुदूर… तक खिंची 

चट्टान के चौड़े.. सीने 

ऊपर फैली, नीली, 

स्निग्ध् सतह पर 

किरणों 

का

आवरण ओढ़े, 

चम चम चमकती, 

जल राशि, अद्भुत थी! 

देखते ही आंखें 

शीतल! 

मन प्रसन्न! 

स्मृति/बिस्मृति का खेल 

देखता! डूबता, मैं 

उसके अंदर

अवाक! 

खड़ा

था।


लहरे 

मुस्कुरातीं 

हल्के हल्के बहतीं 

बाल-शिशु सी सुलभ 

क्रीडाएं करतीं, आगे बढ़तीं, पीछे हटतीं 

कल कल ध्वनि से मुकुलित हो 

बातें करती, विहंस बहतीँ।

क्षण प्रति क्षण अलग...

क्षण में मिलतीं।

स्कूल ड्रेस

में सजी

बच्ची

सी

हिलती मिलतीं।

नटखट

बालिकाओं सी

जल उर्मियां मचलती रहतीं।


कैसी प्रशांति, कितना प्रसार

सु-अच्छ, निर्मल, 

निष्कलुष प्रसन्न,, 

शांत, अवसन्न

निष्कंप, 

दर्पण सी

संपूर्ण आकाश को समातीं भीतर, 

नटखटी।

उज्जवल, हीरक 

कणों का सम्मिलन, 

दूसरा मानसरोवर ही था 

क्या मेरे सामने! मुझे नहीं पता! 


बंध गई दृष्टि, 

मन, बुद्धि, विवेक, 

मैं स्वयं, स्वतः, 

अपलक एक हो गए, 

पुराना परिचय

या पुरानी विस्मृति

मैं था ही नहीं।

सत्य उतर आया था

मैं तरल हो उसी में घुल गया।

सब कुछ अद्वैत सा मिल 

एक हो गया।

यही तो सत्य था जो देखने 

हिमालय पर मैं 

इस उम्र में गया था।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: दुनियां का सच क्या है खोजता रहा हूं तलाशा है गहरे और उथले डूब कर तैर कर। जो अभी तक पाया वह यही है। सब कुछ और सब लोग एक ही तत्त्व से बने हैं, एक सबके अनुभव, सुख दुख, आनंद और पीड़ा फिर लोग और प्राणी अलग क्यों। अपने को भूल जाना किसी में या सभी में समा जाना पूरा का पूरा यही सत्य है। आप एक रूप संपूर्ण सृष्टि से हो सकें यही सत्य को पाना है। यही सत्य दर्शन  है। करुणा उदारता प्रेम यही करता है आप घुल कर दूसरे में मिल जाते हैं।

पुष्प द्वितीय: श्वेत सीधी लाइने 

पेड़ हैं ये, 

ऊंचे ऊंचे

खेलते है खेल! 

संग संग बदलियों के।

आ गई है पास मिलने

जो धरा के, 

आषाढ़ में जमकर 

बरसने।


बादल गरजते, 

वर्जना का स्वर लिए 

झूमते हैं, देखो यहां 

हर ओर कैसे। 

आकाश गिर कर ही, 

धरा पर, आ गया हो,

कुछ इस तरह 

हर ओर डेरा डाल बैठे।


धुली धुली सी बन की देवी 

हरे रंग की साड़ी पहनी,

मुस्कुराती देखती है

जंगलों की ओट से,

क्षितिज के उस पार! 

धूमिल दृश्य कैसा हो गया है! 

डेरा बादलों का ही, यहां तो बस गया है।


मगन है हर एक 

परिजन, तृप्त है

हर्ष है चंहुओर 

खुश सब नाचते हैं

झूमते हैं, 

हैं नहाते, शुद्ध जल से।

गुदगुदी सी लग रही है,

गिर रही जल धार, 

जब जब छू रही है।

दीखती है, 

रस भरी, रसधार उज्जवल

गिर रही है,

श्वेत सीधी लाइने 

अक्षर बनातीं, दृष्टि के नेपथ्य पर

कुछ लिख रहीं हैं।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: श्वेत सीधी लाइने अर्थात गिरती जल की बौछारें कुछ लिख रही है यानी सृष्टि की रचना में सहयोग कर वनस्पतियों को बढ़ा रही हैं। प्रकृति की देवी ने सद्यः सांध्य स्नान कर हरितिमां की साड़ी पहनी अर्थात हरियाली निखर आई है। सभी तृप्त हैं। बूंदों के ऊपर गिरने के स्पर्श से गुदगुदी अर्थात अच्छा लग रहा है।




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