चलो मिलते है! आज कहीं!

पुष्प प्रथम: जीवन सार

कितना अभिनय!  

कितना सच! 

जीवन अपने संग लेकर,

आज यहां आ पहुंचा है; 

पीछे! जगमग, जग! दिखता है

आगे मेरे कर्मों का  फल!  

क्या निर्मल! मुझको दिखता है ? 

भाव: जीवन में मानवता की रक्षा का दृष्टिकोण और आत्मतुष्टि की दृष्टि सदा ध्यान में रखें जिससे अंत में प्रायश्चित की स्थिति न हो।

द्वितीय पुष्प: काल का जन्म

उत्छाल था यह, 

विपुल के

जल राशि का, सागर सलिल का,

लहर बन कर, उछलता है,

खेलता है... 

काल ही है जन्म लेता.. 

दृष्टि के परिवर्तनों में।

शांत, अद्भुत शांति, 

कल कल बह रही थी,

रात दिन का वह नियंता

चुप खड़ा था, 

हाथ जोड़े, अंतरों में

समय जिनमें पल रहा था

 बढ़ रहा था, 

सृष्टि के परिवर्तनों में।

भाव: परिवर्तन के भीतर ही मानव ने समय की रचना की है और समय की माप स्थापित किया है। श्रेष्ठ लोगों ने स्वयं शांत हो संयम से दृष्टि को स्थिर कर अनुभवों से इसे अंतरों में सतत ध्यान लगा कर चुप शांत मस्तिष्क से पकड़ा था।

तृतीय पुष्प: पंच तत्व  'पंचीकरण' 

मिल रहे थे 

जल, पवन, आकाश, धरती

अरुण की किरणे 

बिछलती उर्मियों पर

गा रहीं थीं, 

सृष्टि का वह, गीत पहला।


गीत पहला।

कौन था! वह कौन था !

जो देख कर अभिभूत था! 

सुन रहा था मिलन का संगीत

अद्भुत गीत जो मिल गा रहे थे

पंच-पार्थिव, इस धरा पर

सृष्टि के पहले प्रहर में।

मुक्त हो! स्वच्छंद हो! निःबंध हो!

हर बंधनों से!

सहज ही 

निज निज स्वभावज 

सद्गुणों से 

मेल खाते, रूप लय में, मधुर हो! 

भाव: सृष्टि का प्रथम आविर्भाव, जब जन्म लेकर पांच पार्थिव मूल तत्व जल, आकाश, अग्नि, वायु और मृदा आपस में इस पृथ्वी और परिवेश का निर्माण किए होंगे कैसा दृश्य रहा होगा। उस समय का प्रकृति नृत्य, आपस में संविलयन और गुणों का वरण कितना अद्भुत रहा होगा। आपसी प्रेम से ही एक दूसरे से मिल कर ही अन्य तत्व और पदार्थ बने होंगे।अस्तित्व का आरंभ आपसी सद्भाव से ही विश्वास से ही रूप लिया होगा।

चतुर्थ पुष्प: विश्व निर्माण 

खेलते, 

आकाश छूते, 

परस्पर स्पर्श करते,

मुस्कुराते, हंस रहे थे, 

संसर्ग से तब दूर थे।

कोई नहीं था,

कुछ भी नहीं था,

मुक्त थे वह पांच भी 

खुद में अकेले,

पास थे, एक दूसरे के 

फिर भी काफी दूर थे।

क्या शून्य था, 

घूरता हर तरफ उनको चुप खड़ा था!

सोचता हूं, उस शून्य में 

फिर क्या छुपा था! 

भाव: निश्चित ही कलोल, उत्फुल्लता, मस्ती से भर कर ही यह जादुई सृष्टि बनी होगी। बंधनों से मुक्त हो, बंधी होगी बंधनों में, प्रेम से एक दूसरे के, सोचता हूं।

पंचम पुष्प: ईशावास इदम सर्वम

बिजन बन के, 

शैल ऊपर कौन है; 

यह नद जहां से पनपती है, 

हिम शिखर के गर्भ में।

अगम तल पर कौन है,

क्या छुपा है?  निविड़ जंगल बीच में?  

वह! 

या घंटियां जो बज रही हैं मंदिरों में! 

बीच उनके, 

या गले में, गाय के 

जो बज रही हैं, टुंन टुनाती खेत में,

पास के इनके..  या 

जन-स्थलों में, 

जंगलों में रह रहे ऋषि आश्रमों में।

है कहां उसका ठिकाना 

तुम जरा मुझको

बताना सोचकर कभी ठीक से।

भाव: सृष्टि का रचइता, विधाता, क्या विजन बन में आज भी छुपा है, या गिरि कानन में पर्वतों में बैठा है या ऋत या जीवन प्रवाह में कर्म के भीतर, या भक्ति आस्था श्रद्धा में समाया हुआ है।

षष्ठम पुष्प: हमारी दुनिया की स्थिति

न कोई है यहां, 

कहने को...

सुनने को 

न है कोई! है..

एक तू है... 

जा छिपा है, अंतरों में हृदय के

इन मानवों के! 

खोजता हूं, थक गया हूं

देख कर इस स्वार्थ की 

व्यभिचार की, अभिशाप की

दुनियां में रह कर,

संबंध सारे बिक गए है, 

प्रेम सबसे छिन गया है

एक धोखा जिंदगी बस बन गई है

ओस बनती क्षितिज में ही खो गई है।

भाव: इतनी शौक से विधाता ने इतनी सुंदर दुनिया बनाई थी हम सबने अपने अपने स्वार्थों और निजी सुख के लिए इसे नर्क से बदतर बना दिया है। इसे और अच्छा करने की जगह हमने अपनी अभिशाप की जगह बना दी है। अब यही हाल रहा तो जिंदगी मिटने की ओर जा रही है।

सप्तम पुष्प: जब मैं खुद को जीतता हूं, 

जब मैं खुद को 

जीतता हूं, 

खुश होता हूं, बहुत

बहुत! खुश होता हूं

जब मैं अपने से 

अपने को ही 

हारता हूं,

सच उससे ज्यादा .खुश/ दुखी..होता हूं।

आप ही बताएं  

आखिर मैं इसमें... क्या लिखूं।

जय प्रकाश मिश्र


Comments

  1. परिस्थितिया स्थाई नही होती इसलिए हमेसा खुश ही रहना चाहिए ऐसा मेरा मत है।🙏🙏🙏🙏🙏

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