बालिका सी भीगती, प्रकृति चुप है, शांत कितनी!
वो कौन है?
जो, बूंद बन बन बरसता है!
मधुर रस! व्योम से इस।
शीतल धरा करता हुआ,
छू रहा तन को मेरे,
मैं भीगता हूं,
हृदय की
गहराइयों तक,
पत्तियों की कोर से
जो टपकता है!
त्रिदल की
नवपत्तियों के पृष्ठ ऊपर,
तरल मोती,
सा लटकता झूलता है।
स्फटिक मणि सा दीखता,
हीर कण बन चमकता है;
दूब की इन फुनगियों पर।
अंगूठियों में,
नग को जैसे धारता है।
बेतार की
बीणा बजाता!
भ्रमर की धुनि को उठाता!
कोंपलों पर गिर रहा है।
झर.. रहा झरना,
अचानक,
घर बगीचे देखता हूं;
बालिका सी भीगती..
प्रकृति चुप है, शांत कितनी!
पेड़, अब उड़ने को हैं;
हिल रही है पत्तियां
कुछ इस तरह
हिलडुल
मचाती शाख पर,
फड़फड़ाते पंख जैसे पक्षियों के।
या
बुलाती हैं
मुझे आ पास आ!
भीग जा तूं भी मेरे संग
खुशियां मना।
नन्ही नन्ही पत्तियां है
सरगम बजाती अंगुलियों से,
मचलती उठ गिर रही है
बूंद के स्पर्श से।
पुष्प
नख क्षत
झेलते वर्षात का
हिय में उछलते
वारि का सुख ले रहे हैं।
तान ढीली हो गई है,
शब्द धीमे हो रहे हैं,
वर्षात धीमी हो रही है,
पर! बदलियां है ताक में!
उधम मचाएं! रात में।
झीस जैसी पड़ रही है,
खीस मन में हो रही है
घिर रहा है
फिर अंधेरा इस तरफ से।
हृदय का कोई शब्द
बादल कह रहा है, बदलियों से।
सुन रहा हूं!
गंभीर गर्जन!
या बर्जना यह है कोई!
बैठ कर मैं सोचता हूं।
देखता हूं, गिर रही वर्षात को।
जय प्रकाश मिश्र
Comments
Post a Comment