कैसे कहूं! क्या नाम दूं!

प्रथम पुष्प: वह कहां है अलग मुझसे

कैसे कहूं! 

क्या नाम दूं! वह नमी है; 

नमी बन, नस नाड़ियों में

आ समाई…

जितनी जगह है;  

वह कहां है मुझसे अलग है, 

...मेरी कमी है।

भाव: कुछ लोग इतने सहज, सरल होते हैं, आप उनसे चाह कर अलग नहीं रह सकते। वो आप से कहीं न कहीं कैसे भी जुड़ ही जाते हैं। जैसे नमी हर चीज में अकारण आती है, हमारी कमी भी हममें अनचाहे रहती ही है। और जितनी जगह जैसी प्रवृत्ति हो पैदा हो जाती है।

द्वितीय पुष्प:    छूकर गई वह! 

आज....मेरे पास, 

पहली बार.. आई,

मुझको, दी.... दिखाई।

आंख भर कर देख पाता!  

जब तलक मैं! 

चू गए!  

दो बिंदु बह कर! 

गिर गए, रस अधर छूते

मौन की भाषा में कहकर!  

सब समझकर, 

प्राण को झकझोरकर, 

छू दिए अंदर से

सच! 

वो आज मुझको।

भाव: संबंध सभी का सभी से, आंतरिक होता है। यह भाव और भावना sep बना एक मर्म है। जिसको हम अपना जानते हैं उसकी हर चीज, बिना उसके बोले अनुभूत हो जाती है। मां का स्पर्श निद्रा में भी हम पहचानते हैं। अपनो में एक सुगंध होती है वह अपनों को भीतर से छू लेती है।

तृतीय पुष्प: यह मेरी जमीं है।

हृदय सुन, सब बात, उसकी

बैठता, भीतर ही भीतर,

जा रहा है! 

मन मेरा! पछता रहा है! 

क्या करूं! 

वह नमी है!  नम्र भी है! 

शीतल गजब है! 

वह कमी है? 

क्या? मेरी

पर नहीं है! 

हां सच 

कहूं!  

हाय! वह मेरी जमीं है।

अपने लोग और अपनत्व कितना भी असहयोग दें, कष्ट सीमित रहता है। अपनो की पीड़ा, जिसका समाधान हम नहीं कर सकते उसे देख, मन बैठ जाता है। लेकिन कुछ भी हो? अपनेपन में सदा मिठास और विश्वास की शीतल छाया रहती ही है। जब अपनत्व के प्रेम का जल फैलता है तो हर विभाजन को तोड़ सबको मिलाता जमीं सा, एक बन जाता है।

चतुर्थ पुष्प: ओस में मैं घिर गया हूं

सोचता हूं! 

वह देख क्या! मुझको रही थी,

कनखियों से!  

नजदीक, वो मेरे 

कभी आई नहीं थी।

फिर ओस बनकर! 

आज कैसे! 

घेरकर

मुझको खड़ी है।

क्या! घिर गया हूं! 

याद में मैं 

फिर उसी की। 

जो नहीं, नजदीक मेरे

आज तक, आई, कभी थी।

भाव: बहुत सी अच्छी चीजे हमारे प्रतिद्वंदी, प्रतिपक्ष, प्रतिधर्मी के भी संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों, आदतों में शुमार होती हैं। वो सब मुझे लगता है कनखियों से मुझे देखती रहती हैं। अच्छा होने के बाद भी उनको हमने व्यवहार में अपनाया नहीं होता। जैसे ईद पर मीठी खुशबूदार सिवई की महक, किसी समाज का आपसी प्रेम आदि मन को खींच लेता है। मेरा मानना है कि ये सभी लोगों को ओस की तरह अपने में भिगोता होगा। यद्यपि बहुत से लोग अपनी स्थिति के बाहर देखते भी नहीं हैं। 

पंचम पुष्प: 

देख 

उसको 

मन मेरा

धुंधला हुआ,

विस्मृत हुआ, तन  

बहता गया मैं दूर तक...

बहती हवाओं संग, चुप चुप..।

प्यार की उस पंखुरी में

फंस गया, 

पर

महकता हूं आज भी मैं 

रात दिन, 

उन खुशबुओं में,

भिन गईं जो उस स्नेह की 

नाजुक घड़ी से।

भाव: अनेकों बार सामाजिक बाड़ हमे विचलित कर देती है। अच्छे निर्णय लेने से रोक देती है। फिर भी कुछ लोग होते हैं जो हवाओं और मौसम को नीचे रख आगे बढ़ते हैं और सफल भी होते हैं, खुश भी रहते है।

जय प्रकाश मिश्र



 

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