प्यार करो, हां कर सको तो!
सागर ‘बड़ा’ होता है
बाहर से
ज्यादा ......
“भीतर..” होता है।
मथता है.. ऊपर
निशिदिन
जितना..
उतना ही.. चुप चुप
भीतर रहता है।
माना!
विस्तृत है बहुत!
गहरा कम तो नहीं।
कोई
कुछ भी कहे
कुछ भी हो, टिकता तो
मिट्टी की जमीं पर ही, है
ये भी कहीं।
बड़ा होना
बाहर से कम
भीतर से जादा जरूरी है।
पर
इसके
लिए सागर बन
हर मिलते, नदी नाले को
एक सा, इज्जत देना, प्यार करना
भीतर जगह देना, भी
उतना ही लाजिमी है।
गहराई और विस्तार
दोनों न हों तो
ताल के पानी सा
सागर भी, गर्मियों में
या कुछ लोगों में आंखों के पानी
सा सूख ही जाय।
उम्मीद से रहो,
सागर
बनने की
कोशिश तो करो।
इतना.. पानी, मात्र
वर्षात से नहीं आता!
कुछ भीतर से, पसीजो! अपने!
हां यह पानी
तुम्हारी आंखों में दिखे!
मुंह की मिठास से, हर वक्त झरे!
जिससे मिलो, डुबा लो, खुद में उसको!
मैं देख तुम्हें! खुश हो पाऊं!
हे प्रिय! तुम ऐसे लहरो!
लहरों से मिलो!
सारे जल ही हैं,
नदी, नाले, मीठे, खारे!
इसको समझो!
गुमान छोड़ो
मिल जुल के रहो।
तुम लहराता, सागर सा बनो।
दुनियां को अपना समझो।
अपनों की, दुनियां समझो।
किसी को दुख, मत दो,
किसी का सुख, मत लो।
प्यार करो,
हां कर सको तो! तुम प्यार करो!
जय प्रकाश मिश्र
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