दर्द…

दर्द… 

सहते सहते..

जुबां.. हलफ में रहते.. 

परिस्थिति के मारे कुछ.. ऐसे

बेजुबान होते हैं..

मितरों! दिल 

से नहीं! 

दिमाग 

से भी

कहता हूं….सुनो! 

वे.. 'दर्द-ही' की, प्यारी जुबान होते हैं।


सब्र का दरिया!  

खोजते हो तुम!  तो.. आओ यहां; 

चुपचाप.. कैसे बहता है वह.. 

देखो यहां..!  

गुजारिश इतनी ही है

याद रखना! 

किनारे कमजोर हैं

इनके! अब

'दबाव' सहते-सहते।

आंखों से, तुम्हारे चलके 

दिल तक पहुंचने से पहले

टूट के... 

बह न जाएं, भीतर तेरे 

इसलिए

दर्द को देख, एक मत होना

टूट जाएगा, गर बंध तो

दोनों की आंखों में,

आंसुओ भरा विप्लव होगा! 

छलक जाएंगे आंसू बे वजह 

बूंद बनके, दिल भारी होगा।


दर्द!  दर्द…. 

कैसा होता है! तुम देखोगे? 

तो सुनो! दिखाई नहीं देता,

भीतर सालता है, 

वेधता है, छा जाता है, अंधेरों की तरह! 

भारी कितना होता है! 

उठा के देखोगे? 

भारी हाथों को नहीं, 

दिल को होता है, 

उसे दबा के रखता है

ऊपर उठने ही नहीं देता!


समय की पिसती, 

घिसती

पहियों के नीचे, 

दबते दशकों, दशकों

कहीं कोई सौ में एक

सच्चे दर्द की जुबान होता हैं।


चुप, चुप सहते हैं 

सारे जुल्मों-सितम, ये ऊपर अपने

जो भी हों, हो सकते हों

भृगु के पैरों की घाव 

छाती पर, ले, ले के 

सहलाते है उन्हें, बार बार

हाल पूछते हैं,

अपने हरि, हाकिम, जालिम का

तब कहीं ये बेजुबान बनते हैं।


ये जानते हैं पूरा मिजाज तेरा

फिर भी खुश हो के 

सलाम करते हैं

तुम देखो न देखो उनको

ये किसी और के नहीं 

समय के, समय तक गुलाम होते हैं।


रोते हैं, हंसते भी हैं

बस सूरत से ही पयाम देते हैं,

हाजिर हर वक्त रहना 

जाने कहां से सीखा है,

इन सबने,

कुछ भी हो भीतर से 

समय की मार से घायल

मोहब्बत का ही तो 

बाहर.... 

पैगाम देते... मरते हैं।

दर्द की... इंतहा, 

दर्द से बढ़कर क्या होगी,

शायद इसी से, मरते वक्त

चेहरे... इनके दुनियां पर..

हंसते हुए.. प्रयाण करते हैं।

जय प्रकाश मिश्र

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