तमन्ना वैसे ही बैठी थी वहीं, चुप! छुपके!
पायदान: प्रथम: अनछुए पहलू
जिंदगी के सारे पन्ने
खोल डाले आज उसने
एक दिन में,
सलीके से लगाया।
ध्यान से, गौर से देखा, सबको
आज भी कुछ पन्ने
सादे, साफ, अनछुए, उजले,
वैसे ही रखे पड़े थे, बचपन के
इंतजार करते किसी खास की
बस केवल एक छोटे से
शब्द हां की आरजू रखे।
तमन्ना वैसे ही बैठी थी
वहीं, चुप!
छुपके! आज भी, पूरी दुनियां से!
भाव: बचपन हमेशा हर उम्र में वैसे ही जिंदा रहता है, कुछ चीजे किसी के एक छोटे से उत्तर की प्रत्याशा में इंतजार की खूंटी पर वैसे ही रह जाती हैं।
पायदान द्वितीय: दुनियांदारी
वो चालाक था,
उसने दुनियां देखी थी।
जलालत और जहालत
ने धोया था उसको
बहुत अच्छे से।
तभी तो सब छोड़ उसने
जादूगरी सीखी दुनियां की
खुद से, अपनो से दूर हुआ…
आखिर तक…
और सच है
दुनियां के लिए ही
दुनियां खरीदी उसने
आखिर तक।
भाव: शांति से, अपनों के प्रेम से वियुत जीवन, आनंद में नहीं रह सकता। संसार को जीवन देकर खरीदना पछतावा कारी होता है।
पायदान तृतीय: जिंदगी में चांद
उस पर सब कुछ था
बस एक चांद नहीं,
धरा ऐसी ही थी, हरी भरी
सुंदर वन, नदियां घाटियां, पर्वत,
हिम से लदे ऊंचे शिखर,
चहकती चिड़ियां
अलबेले लोग, बहती हवा, पानी,
महकता सौरभ, सरसता यौवन
आग का गोला, चमकता, सूरज
पर
एक चांद नहीं,
कभी मयस्सर हुआ उसको,
जिंदगी भर!
वहां दो ही, हो सकते थे;
रात, या दिन,
अंधेरा या उजाला
सच या झूठ, गोरा या काला।
बस चांदनी से
महरूम थी वो जगह!
पर्वत शिखर के
हिम किरीट चम चम
नदी का बहता पानी कल कल,
झील का विस्तृत उजला मुख,
पर रात में सब रजत नहीं
राख लगते थे।
क्योंकि बस एक
चांद नहीं था उसपर!
स्यामल रातों में
शीतलता तो थी,
पर सुखद
चांदनी की वर्षात नहीं!
आकाश सूना
अमावस लगता था।
वहां मन चंचल थे, स्थिर नहीं,
सौंदर्य खिलता था, मुस्कुराता नहीं
क्योंकि वहां चांद नहीं था।
कल्पना तो थी पर चांदनी से दूर
रातें काली थीं, चांदनी से महरूम।
सोचो हमने चांद पाया
तो क्या क्या पाया!
अपने घर का चांद पहचानो
उसे इज्जत दो,
बदले में ताउम्र छनकती चांदनी लो।
भाव: सुखी जीवन पारिवारिक जीवन, गृहस्थ जीवन ही है। जहां अपने और परिवार का देखभाल करने वाली देवी होती है। वह अपनी चांदनी रूपी उदारता और समर्पण से आदमी के जीवन में सुख शांति फैलाती रहती है।
जय प्रकाश मिश्र
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