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Showing posts from March, 2025

समय की चादर जुलाहा बुन रहा था.. ।

पृष्ठभूमि: समय एक अद्भुत चीज है, यद्यपि यह स्वयं में कुछ है ही नहीं! यह तो कल्पना की दो सीमाओं में कैद एक अंतराकाश मात्र है। समय बाहर संसार में नहीं हमारे भीतर, हमारे मस्तिष्क का एक उत्पाद है। हर मस्तिष्क की दक्षता पर समय का जीवन काल या मान बढ़ता और घटता है। वास्तव में हमारे जीवन काल के विभिन्न परिवर्तनों से बना यह यह एक शानदार रंगीन चादर है जिसे हम मस्तिष्क में चेतना के माध्यम से बुनते, सहेजते और रखते, और अतीत से जोड़ते रहते हैं। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। एक  जुलाहा.. बुन रहा था एक कपड़ा  समय... का,  दूर था हर धुंध से,  सूत्र... ले परिवर्तनों... का,  हाथ में,  बैठा.. हुआ, मस्तिष्क.. में,  हर आदमी के.. देखता  हूं!   रोज उसको जोड़ता..,  बुन.. चुके, पुराने मिले, उस भाग से,  संस्कृति के, याद के, और  इस इतिहास के अतीत से। भाव: समय का कपड़ा, हमारी चेतना,  दिनरात दुनियां के धुँध से दूर मस्तिष्क में, जीवन की घटनाओं और परिवर्तनों को ले, ब्रेन में बुनती रहती है और इसे अपनी संस्कृति, इतिहास और स्मृति से जोड़ती तह पर त...

इसी का तो पर्व है, नवरात्रि यह!

वासंतिक नवरात्र की सभी को बधाई। आ चलें हम जानते हैं, "वह" शक्ति क्या हैं?  किसलिए, ये हो रहे हैं, कार्यक्रम!  नव दिन.. बराबर, देश.. में एक उत्सव.. का बना  माहौल है,  हर एक मन में, गांव.. में, पूरे देश.. में। लो सुनो पूरी कहानी  आज मुझसे... प्रारंभ.. है यह, सप्तशती.. के, पाठ का, एक राजा.. सुरथ थे,  बहुकाल.. पहले, अतुलित.. प्रतापी,  विपुल.. फैला राज्य था, उस वीर.. का। अन्यान्य.. था, वह वीर लेकिन समय.. है बलवान सबसे.., कुछ कोल थे, विध्वंशी भी थे  राज्य के बाहर निवसते, जंगलों में, पास के।   आक्रमण में, इन सभी से, हार कर  मंत्रियों के दुष्ट अव-व्यवहार पर छोड़कर घरबार, अपना,  महल अपना राज्य अपना आना पड़ा उसे जंगलों में भागकर, संग ले कुछ स्वर्ण मुद्रा, अरु जवाहर।  घूमता उस निविड.. बन में, एक जन.. उसे मिल गया,  व्यापारी बड़ा था,  सामान लेता.. भेजता.. था समुद्र.. के वह मार्ग.. से। पर! लज्जित!  हुआ था,  गृह में अपने!  एक दिन, किसी बात पर!   पुत्र से, पत्नी से अपने, साथ ही परिवार से,  इस लिए सब...

निपात! और भूमि ही अंतिम आधार!

पृष्ठभूमि: यह हम सभी के जीवन पर लिखी गई लाइने हैं पूरा पढ़ेंगे तो अच्छे से जान पाएंगे पूरी बात! कि हम क्या हैं, क्यों यहां हैं, अपना रहस्य क्या है। जीवन क्या है सभी की एक ही गति कैसे है। पढ़ें और मात्र आनंद लें। निपात यानी गिर जाना या आवरण विहीन हो जाना और दुनियावी सारे कवर त्याग अपने मूल रूप में आकर बिना किसी अहंकार के होना। धरती पर गिरना यानी मूल स्वभाव में बरतना। अंत सभी का ऐसे ही होगा जैसे पेड़ों से गिरी पत्तियां, पुष्प या पके फलों का होता है। सारी संपत्तियां यानी दुनियां के ये आकर्षण एक दिन समाप्त होते ही है अतः ज्यादा टेंशन नहीं लेने का, आगे पढ़ें। निपात! और भूमि ही अंतिम आधार!  सूख कर गिर जाती हैं,  ताजी, हरी भरी, धूमिल होती ये पत्तियां मिट्टी में मिल, मिट्टी ही बन जाती हैं  ये सारी की सारी.. संपत्तियां..। पकते, पीले, सुरमई होते  सुगंधित ये फल  गुलाबी, लाल, सुर्ख से काले होते,  सभी... पल प्रतिपल  सूखती, बदरंग होती वज्र सी  ये डालियां,  उड़ती ऊंचे आकाश में .. दीखती  ये सारी चिडियां..   मिट्टी में मिल, मिट्टी ही बन जाती है...

क्या यह! आखिरी बोली लगी थी?

समाज में अनेक बुराइयां आदि काल से रही हैं। दास प्रथा भी उनमें एक रिसता, दर्द देता जख्म रहा है। यद्यपि अब यह भौतिक रूप में समाप्त हो चुका है पर उसकी दुखद यादें पन्नों में और स्मृतियों में बसती हैं। उसी का एक कथानक आपके लिए प्रस्तुत है। आप पढ़ें और मनुष्यता की रक्षा करने की कोशिश जितनी हो सके जरूर करें। बात तो यह!  पुरानी है,  पर, वज़ेह... की है, इसलिए मैं...लिख रहा हूँ;  शब्द... में इसे, पिरोता हूँ,  भेजता हूँ आपको।  मंडी लगी थी,  वाह!  क्या..... शानदारी... से, सजी थी..। लोग थे,  और लोग... ही  लोगों के दरम्यां...  सच कहूं!  सामाँ... बने थे। कुछ,   सजे.. थे,  सजाए.. भी , कुछ  गए थे। पर, बिक रहे थे,  तैयार थे,  बिकने को वे...। कुछ शौकिया...,  कुछ, मजबूरियों में  भी खड़े थे... । पर! भाग्य को सब कोसते!  एक कोने,  गुप चुप खड़े थे। एक सच कहूं!   भाग्य पर, सब हंस रहे थे, कुछ तार तार!  विलपते!  नीर नयनों में भरे,  द्रवित हो हो, रो रहे थे। अधिकतर तो शांत थे,  सपाट...

पूछ तो! ऊपर शिखर पर, क्या रखा है?

भाव: आदमी के संस्कार स्वतः ही मुखर हो जाते हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं होती उसकी सादगी, बातचीत, और मिलना सब अलग ही होता है औरों से। आदमी के बोलने से पहले ही आपका आचरण और सादगी सब बता देती है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें। देखेगा.....  जब.. भी कोई तुझे,   तेरी सादगी_में रचा,  लुकाछिपी खेलता  पहले मैं ही, नजर आऊंगा,  निकट तेरे  पांवों की महावर में रंगा  बर-वक़्त, चारों तरफ,   रौशनी बन,  हौले, हौले औरा सा, बिखर जाऊंगा। उठेंगी  जब.. भी, ये पलकें..  तेरी,  घनेरी.., काली काली तेरे मुख पे..  छलकती मुस्कान.. के पीछे कोनों में, होठ के नीचे देखना! दुबकता, मुखर होता मैं ही सज़ जाऊंगा। भाव: हमें जिंदगी को इसकी सुख सुविधाओं को अपने उसूलों पर हावी नहीं होने देना चाहिए। तकलीफें जीवन का हिस्सा हैं सच्चाई से हट वे समाप्त नहीं होते पश्चाताप में बदल जाती हैं अतः अपने उसूल पर कायम रहें। तुम  झुकना मत उसूलों पर टिके रहना;  देखना! मैं मजबूत दीवार बना,  सामने ही नजर आऊंगा। तूं, इस  दुकड़िया  जिंदगी... से डरता है!...

ये बेटियां मेरी बेटियां!

भाव: संसार में हमारी बेटियां ही नारी शक्ति की विशिष्टता को प्रमाणित करती है , वह इस संसार के संस्रिति का कारण मूल हैं। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें। बेटियां ही उत्स हैं,  इस नियति की संसार जिनसे उपजता है, पालती हैं, पढ़ाती हैं,  जन्म देतीं  विश्व को इस,  रूप देतीं,नौ महीने  गर्भ में निज रक्त देकर सींचती हैं। है कहीं कोई?  बता तो!  धैर्य जिसका,  इतना बड़ा हो!  पेट पर ले भार  शिशु का अनवरत तीन किलो नौ महीने, प्रसन्नता से!साधता हो।  विश्व का आधार हैं ये!   सृष्टि का सौंदर्य हैं,  क्षमा है, ये प्रेम हैं,  करुणामयी हैं।  देख तो मां, बहन, बेटी से आगे आदि का,  आदि से ले, आज तक,  विस्तार हैं ये। वरदान इनको मत कहो,  ये देवि हैं, वरदायिनी हैं, शक्ति हैं,  आदि रूपा, रूप हैं, आधार हैं, परिवार की  सुमति का संसार हैं ये। ये बेटियां ही, भविष्य है  भविष्य..के भी,भविष्य..का हर प्राण का ये प्राण हैं, ममतामयी हैं, वेश में। जय प्रकाश मिश्र शीर्षक: उम्मीद भर कर तुम जिओ  भाव: हम लोग भावनाओं और कल्पना...

दूर है हर तर्क से यह दूर है।

भाव: हम सामान्य व्यवहार में चाहे जैसे हों पर अपने अवचेतन मन की दृष्टि से लगभग समान कैटेगरी में आते हैं। विपदा-काल में सभी एक सा ही व्यवहार करते हैं चाहे विद्वान या सामान्य-जन कोई भी हो। इन्हीं पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। कुछ… अलग है, पास सबके  सुरक्षित है, अंतरों में, यह दीखता बिल्कुल नहीं, पर, झांकता, अव-चेतनों से। हर निर्णयों में, भ्रांति में संभ्रमों, उत्क्रांति में, बीच… में, हर समस्या के चुप… निकलता, दुर्दिनों में। हर तर्क… से यह..पार है हर समझ… से यह… दूर है अपरिवर्तित, वर्तित सदा  चुप-शांत बैठा… है मनों में। भाव: अवचेतन मन/ मस्तिष्क की शक्ति अद्भुत और तात्क्षणिक प्रत्युत्पन्न प्रेरण से संपन्न होती है। यह स्वयंभू है और हमें सदैव दु:स्थिति में सहायता देती है जिसे प्रायः हम भाग्य बल भी कह लेते हैं। इसके कार्य चमत्कारिक होते है और हमारी सामान्य क्षमता से बेमेल हो चमत्कार कर देते हैं। यह स्वयंभू… है,  बनता... है खुद  इस विश्व का सौरभ है यह, जीवन इसी पर है टिका, जीवन इसी संग बह रहा। यह संक्रमण से दूर… है शुद्ध है, परिशुद्ध… है,  भाषा, विषय, विज्ञान,  ...

अजीब सा स्टेज है, निराला है अपने में।

भाव: यह जीवन और यह दुनियां दोनों को जब गहराई से देखता हूँ तो अपने पर आश्चर्य होता है कैसे निराले स्टेज पर मैं खड़ा हूं, जिस पर आज जघन्य अपराध होते हुए, सब वहीं खड़े देखते रहते हैं  बिना प्रतिक्रिया दिए। जैसे वे नाटक में आपने हिस्से का अभिनय करने मात्र को वहां अधिकृत हैं। अजीब सा स्टेज है, यारों !  दुनियां का,  निराला है, अपने में, पूछो... कैसे ?  बांध लेता है, मुझे,  क्या अपने में?   इन बदलते हालातों में?    नहीं!  आप सभी सा ही, इन चुपचाप खड़े मूर्तिवत हुए,  सामने घृणित अपराध घटित होते,  मूक देखने... वालों में। भाव: आज सोचता हूं यह ऐसा तो नहीं था अभी चालीस, पचास साल पहले जब हम यंग होते थे किस तरह अन्यायी और अत्याचारी के खिलाफ जान की बाज़ी लगा खड़े हो जाते थे। आज भी मन तो वही है पर अपना निर्दिष्ट अभिनय हम पूर्ण कर अब दूसरे फेज में आ चुके हैं।  आज भी, बंध जाता हूँ, बिल्कुल वैसे पहले जैसे था कभी, सत्तर साल पहले, जब कि पता है मुझे,  खेल चुका हूं, पार्ट अपना,  पूरा, बहुत अच्छे से बहुत पहले। भाव: आज भी लोग शायद हम लोगो...

कभी चांदनी से पार आओ,

भाव: शिव और शक्ति विलग होने पर कल्याणात्मकता की दृष्टि से धूसर हो जाते हैं। इनका संयोग ही सृष्टि का गतिमय रूप है। यहीं से जीवन रूप लेता और विस्तार पाता है। और पुरुष तत्व मातृ तत्व से संयुक्त हो ही वास्तव में योग की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें। वह शिव प्रकृति में  लीन होकर  लय हुए,  तभी तो, जो  शव से थे  फिरते हुए, वह शिव हुए।  संग उनके… आ हृदय में बस.. गए  रूप से, अरूप होते  अधर.. पर   मुस्कुराहट.. हैं बने देख कैसे खिल गये। पुरुष थे, वह  धुनि रमाए बैठे हुए, जंगमों से  जंगलों में, गिरि कुहर में कंदराओं, श्मशानों,  पर्वतों में अकेले एकांत में सबसे अलग थे आत्म थे वह, लहलहाते  संयोग कर इस प्रकृति से योग से वह गुजरते, योगी हुए। जय प्रकाश मिश्र पग दो: शब्द क्या हैं शब्द क्या हैं? कैसे दुनियां निराली बनाते  हैं भेजते हैं  दिल से दिल तक  आदमी के,भाव सारे। बस आदमी तक!  बस यही तक!  नहीं रे!  हर प्राणियों में हैं समाए शब्द यह, बोल बनकर निकलते हैं,  और  सारे समझते ह...

एक लव जलती हुई वह!

पृष्ठभूमि: वधू बनने से पूर्व हर नारी एक कुमारी बालिका रहती है और अल्हड़ स्वतंत्र जीवन अपने घर में जीती है। हमारे समाज में बच्चियों के जीवन में एक अवसर उन्हें परिणय की दृष्टि से परिणय के पहले दिखाने का होता है। लोगों के लिए यह सामान्य होगा पर उस बालिका के हृदय पर क्या गुजरती है आप अनुमान नहीं कर सकते। उसकी आन, मान, सान और अभिमान ही नहीं वो स्वयं, उस समय, उस क्षण, एक कठिन और जटिल स्थिति से गुजरती है। जब लोगों की कातर निगाहें उसे, सामान सी तौलती हैं वह किस स्थिति में होती है उसी पर कुछ लाइने पढ़ें और सदा ऐसी स्थिति में अपनी आदमियत और अपनी बेटी सा प्यार उसे जरूर दे। एक लव  जलती हुई वह!  लाज लेकर! बह रही थी, कंप..कंपाती!   हिल!  रही थी  दृष्टि… की, कातर हवाएं, एक संग,  जब, एक ऊपर.. एक,  उसके पड.. रहीं थीं। भाव: ब्याह के लिए दिखाए जाते समय उस बालिका के भीतर लाखों प्रश्नों का अंबार, एक भीड़ सवालों की लग जाती है। फिर भी वह मुस्कुराती आपके पास चाय की प्यालियां लिए सहमती हुई परीक्षा के लिए पग बढ़ाती है। खुद को दिखाती,  मुस्कुराती  सलज्ज वह! चाय ले...

वात्सल्य

भाव: हम पुरानी निजी, मधुर स्मृतियों की झलक में, उनके चित्रों में, उनकी यादों में खोकर गहरा सुख और सुकून पाते हैं। कुछ क्षणों के लिए अपने को भूल जाते हैं, लोग अपने वर्तमान और भौतिक अभाव से भी अल्प कालांश में मुक्त हो जाते हैं। जो अन्तर्भाव किसी कारण कभी अधूरे छूट गए, भीतर दब गए, वे अनुकूल स्थिति पाते ही वेग से बाहर उमड़ पड़ते हैं। वात्सल्य सुख भी उनमें से एक है।। सभी प्राणियों में चाहे वे मानव हों या पशु, यह स्मृति सुख दूसरों के बच्चों में भी समान रूप से अनुभूति कराता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। शाम क्या होती, कई घरों में  बच्चे कुनमुनाने लगते,  अपने अपने पेरेंट्स से  पार्क में  आने की, दिलकश गुहार  दादू, दादी या मम्मी से लगाने लगते। सारे बच्चे और बच्चियां,  देखते ही देखते,  रुपहले  परिंदों  और परियों से सजते थे, सच कहूं  वे उस सुरमई शाम में  साक्षात  ईश्वर के  भेजे,  देवदूत मुझे लगते थे।  पांच बजते ही,  बस मिनटो के भीतर, दर्जनों किड्स उस सुंदर हरिताभ  आभा वाले पार्क  की  अनुपम शोभा...