एक लव जलती हुई वह!

पृष्ठभूमि: वधू बनने से पूर्व हर नारी एक कुमारी बालिका रहती है और अल्हड़ स्वतंत्र जीवन अपने घर में जीती है। हमारे समाज में बच्चियों के जीवन में एक अवसर उन्हें परिणय की दृष्टि से परिणय के पहले दिखाने का होता है। लोगों के लिए यह सामान्य होगा पर उस बालिका के हृदय पर क्या गुजरती है आप अनुमान नहीं कर सकते। उसकी आन, मान, सान और अभिमान ही नहीं वो स्वयं, उस समय, उस क्षण, एक कठिन और जटिल स्थिति से गुजरती है। जब लोगों की कातर निगाहें उसे, सामान सी तौलती हैं वह किस स्थिति में होती है उसी पर कुछ लाइने पढ़ें और सदा ऐसी स्थिति में अपनी आदमियत और अपनी बेटी सा प्यार उसे जरूर दे।

एक लव 

जलती हुई वह! 

लाज लेकर! बह रही थी,

कंप..कंपाती!  

हिल!  रही थी 

दृष्टि… की, कातर हवाएं,

एक संग, 

जब, एक ऊपर.. एक, 

उसके पड.. रहीं थीं।

भाव: ब्याह के लिए दिखाए जाते समय उस बालिका के भीतर लाखों प्रश्नों का अंबार, एक भीड़ सवालों की लग जाती है। फिर भी वह मुस्कुराती आपके पास चाय की प्यालियां लिए सहमती हुई परीक्षा के लिए पग बढ़ाती है।

खुद को दिखाती, 

मुस्कुराती 

सलज्ज वह! चाय लेकर 

हाथ में, सहमती! सी 

चल रही थी। 

पार्श्व में 

एक भीड़ थी, भीतर... कहीं

कोलाहल भरे, मस्तिष्क में 

प्रश्न पर प्रति प्रश्न, उठते, 

शांत होते 

मन में, हृदय में, 

लहर से, जलउर्मियों से, 

फेन से, 

उठ गिर रहे थे।

भाव: भीतर के अथाह उठते गिरते प्रश्नों के पारावार को संयत करती, शांत शीतल नदी से वह विनम्र की चादर ओढ़े अपने पैरों पर विशेष अवधान करती एक एक पग आगे बढ़ती है। अपने आजतक के उसी घर और लोगों के बीच के नटखटेपन को छोड़ एक वधू की गरिमा को मुख पर पहन कर परीक्षा में प्रस्तुत होती है।

फिर भी खड़ी वह!  

अवधान ले निज अंक में, 

उर्वशी सी, उदात्त चित्ता,

स्निग्धता ले

सहज, कोमळ शांत सरिता

सदृश ही तो बह रही थी।

उठ रहे, गिर रहे, 

पदक्षेप की, पदचाप में, 

माधुर्य भरकर चल रही थी।


वह कुमारी थी, 

भाव नवला वधू के 

मुख पर संजोए

वस्त्र बांधे पाल से, 

नाव बन कर तिर रही थी।

जय प्रकाश मिश्र

पग दो: 

कर्म और वाच ये दोनों नश्वर हो हैं। यद्यपि जग इनसे है गतिशील है ऐसा प्रतीत होता है। पर वास्तविक सत्य यह है कि यह विश्व सत्य की शक्ति से ही गतिमान है, और अपनी गतिमयता के चलते ही स्थिर है। परिवर्तन, विघटन और नया जीवन इसके क्रम हैं इसी पर संक्षिप्त दो लाइने पढ़ें और आनंद ले।

कर्म का अस्तित्व कितना

जल रही एक आग है

सोच में, इंद्रियों में, चाह में

आखिर बुझेगी, …

लपलपाएगी थोड़ी, बुझने से पहले।

शब्द में है शक्ति कितनी

कुछ नहीं, विकार है यह, 

उद्गार है यह, 

निकास है यह, भावना का, 

अंतर्मनों से।

एक दिन यह मौन होगा, 

आत्म में अभिप्रेत होगा

इस लिए तूं छोड़ सारे आवरण 

सत्य के अब पास आ

यह निर्झरा, अजरा, चिरंतन शांति है

मौन है, रस कंठ का है, 

कर्म का अवधान है

जीवन यहीं है।

जय प्रकाश मिश्र

पग तीन: 

आप ही संसार है, संसार चेतना का है, आप भी चेतना का एक स्वरूप मात्र हैं। यहां आनंद और चेतना के साथ जीवन जिएं। 

यह विश्व क्या है? 

लोग क्या हैं? 

समय क्या है? 

संपदा… सारी, ये.. क्या है? 

कुछ नहीं, कुछ भी नहीं! 

सारा फसाना, हम ही है,

यदि हम… नहीं, 

तो सब… ये, क्या हैं? 

कुछ नहीं, कुछ भी नहीं।


चेतना का घर.. ही, तूं है,

चेतना के रूप सारे

चेतना शाश्वत यहां है

चेतना.. है जगत सारा।

कुछ नहीं, मेंरा, तुम्हारा।

जय प्रकाश मिश्र

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