इसी का तो पर्व है, नवरात्रि यह!
वासंतिक नवरात्र की सभी को बधाई।
आ चलें हम जानते हैं, "वह" शक्ति क्या हैं?
किसलिए, ये हो रहे हैं, कार्यक्रम!
नव दिन.. बराबर, देश.. में
एक उत्सव.. का बना
माहौल है,
हर एक मन में, गांव.. में, पूरे देश.. में।
लो सुनो पूरी कहानी
आज मुझसे...
प्रारंभ.. है यह, सप्तशती.. के, पाठ का,
एक राजा.. सुरथ थे,
बहुकाल.. पहले, अतुलित.. प्रतापी,
विपुल.. फैला राज्य था, उस वीर.. का।
अन्यान्य.. था, वह वीर लेकिन
समय.. है बलवान सबसे..,
कुछ कोल थे, विध्वंशी भी थे
राज्य के बाहर निवसते, जंगलों में, पास के।
आक्रमण में, इन सभी से, हार कर
मंत्रियों के दुष्ट अव-व्यवहार पर
छोड़कर घरबार, अपना,
महल अपना राज्य अपना
आना पड़ा उसे जंगलों में भागकर,
संग ले कुछ स्वर्ण मुद्रा, अरु जवाहर।
घूमता उस निविड.. बन में,
एक जन.. उसे मिल गया,
व्यापारी बड़ा था,
सामान लेता.. भेजता.. था
समुद्र.. के वह मार्ग.. से।
पर! लज्जित! हुआ था,
गृह में अपने!
एक दिन, किसी बात पर!
पुत्र से, पत्नी से अपने, साथ ही परिवार से,
इस लिए सब छोड़ कर जंगल में आया
बहुत थोड़ी संपत्ति लेकर साथ में।
खुश हुए, दोनों मिले
आपसी परिचय किए,
पर दुखी थे, दोनों वहां,
जो छोड़ आए थे जहां।
राज्य अपना सोचता! था दुखी राजा,
रानियों को खोजता था, दुखी राजा,
खजाने की फिक्र में,
दिन रात, भरमा घूमता था, दुखी राजा।
व्यापारी कहूं, या वैश्य उसको
समाधि उसका नाम था,
दुर्ललित, अपमानकृत,
वह पुत्र से, परिवार से,
फिर...
उन्हीं को सोचता था,
एकपल निष्ठुर न होता, उन सभी से।
एक आश्रम, बहुत.. सुंदर,
मेधा मुनि का,
सुदूर... अंदर
वनराजि के उस हृदय में,
मुस्कुराता खिल रहा था
आनंद का कोई पर्व हो, शांति का संदेश हो
उन्हें ऐसा लग रहा था।
खूब समझाते रहे एक दूसरे को,
बेकार की सब बात है अब
छोड़ सबको,
आ रहे हम प्रेम से, अब और आगे...
पर, सब व्यर्थ था, ज्ञान उनका,
एक क्षण में, दुखी हो हो
रो रहे, दोनों ही थे, वे।
एक दिन वे आ मिले मेधा मुनि से
कह सुनाए वाकया सब
प्रेम से,अनुगत हुए से..
मुनि ने पूछा.. साथ में
क्या लिए तुम घूमते हो, निविड बन में
पोटली यह,
सकपकाए सहज दोनों हाथ जोड़े..
स्वर्ण है! प्रभु,
जवाहर हैं! बहुत थोड़े!
फेंक दो, तुम इन सभी को
उन रास्तों पर, बेफिक्र हो अब,
इन्हें तुम सब..,
तब पांव रखो, आश्रम में
अपना समझ, मुझको मिलो।
छोड़कर सब स्वार्थ अपना,
फेंक कर सब स्वर्ण मुद्रा..
हीरे जवाहर, त्याग कर..,
शांत.. संयत मन.. लिए,
वे शाम.. को आश्रम.. घुसे।
कह सुनाए कष्ट अपना, क्या करें!
मन मानता ही है नहीं, सोचता है
अतीत अपना, भरमता है कष्ट में
वे क्या करे!
तब बताया महामुनि ने राज उनको
मत हो दुखी,
तुम ही नहीं
प्राणी सारे
एक से ही हैं बने।
देख चिड़िया स्वयं भूखी! डालती है
कैसे दाना प्रेम से, बच्चे के मुख में।
यह शक्ति है, वह शक्ति है
समझो इसे,
यह देवि है, सर्वस्व है, हर वस्तु है
हर एक मन में, साधनों में, स्थान में
जो पालती है, सिरजती है, प्रेम करती है
जनों को, विश्व में।
इसी का तो पर्व है, नवरात्रि यह
नव दिनों में।
जय प्रकाश मिश्र
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