कभी चांदनी से पार आओ,

भाव: शिव और शक्ति विलग होने पर कल्याणात्मकता की दृष्टि से धूसर हो जाते हैं। इनका संयोग ही सृष्टि का गतिमय रूप है। यहीं से जीवन रूप लेता और विस्तार पाता है। और पुरुष तत्व मातृ तत्व से संयुक्त हो ही वास्तव में योग की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें।

वह शिव प्रकृति में 

लीन होकर 

लय हुए, 

तभी तो, जो 

शव से थे 

फिरते हुए, वह शिव हुए। 

संग उनके…

आ हृदय में बस.. गए 

रूप से, अरूप होते 

अधर.. पर  

मुस्कुराहट.. हैं बने

देख कैसे खिल गये।

पुरुष थे, वह 

धुनि रमाए बैठे हुए,

जंगमों से 

जंगलों में, गिरि कुहर में

कंदराओं, श्मशानों, 

पर्वतों में

अकेले एकांत में

सबसे अलग थे

आत्म थे वह, लहलहाते 

संयोग कर इस प्रकृति से

योग से वह गुजरते, योगी हुए।

जय प्रकाश मिश्र

पग दो: शब्द क्या हैं

शब्द क्या हैं? कैसे
दुनियां निराली बनाते हैं
भेजते हैं 
दिल से दिल तक 
आदमी के,भाव सारे।

बस आदमी तक! 
बस यही तक! 
नहीं रे! 
हर प्राणियों में हैं समाए
शब्द यह,
बोल बनकर निकलते हैं, 
और 
सारे समझते है 
उर से उर तक
मां से शिशु तक।

कैसे छुपी है खुशबू इनमें, 
चाहते हो जानना? 
क्या सच बता दूं! 
तो सुनों, 
एक ना, षोडश जुड़ी हैं 
मातृकाएं मातृ सी
संग इनके।
 
पर चढ़े, 
सुरखाब के हैं, साथ सबके।
इसलिए 
हर शब्द खुशबू ले के उड़ते।

जय प्रकाश मिश्र

पग तीन: गीत-यामिनी

कभी चांदनी से पार आओ,
यामिनी जो तन लपेटे 
सितारों को,
चूमती है 
मुख ये 
तेरे,
प्रतिबिंब बन, 
दर्पण के अंदर 
कभी उस, मधुयामिनी के 
पार आओ।
तो 
दिखाऊं,ले चलूं तुम्हें
इस चमकते चांद के घर! 
देखना सूना पड़ा है,
रात भर! 
चांदनी के साथ जो 
फिरता रहा, आकाश में,
निर्द्वंद होकर रात भर! 

जय प्रकाश मिश्र

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