वात्सल्य
भाव: हम पुरानी निजी, मधुर स्मृतियों की झलक में, उनके चित्रों में, उनकी यादों में खोकर गहरा सुख और सुकून पाते हैं। कुछ क्षणों के लिए अपने को भूल जाते हैं, लोग अपने वर्तमान और भौतिक अभाव से भी अल्प कालांश में मुक्त हो जाते हैं। जो अन्तर्भाव किसी कारण कभी अधूरे छूट गए, भीतर दब गए, वे अनुकूल स्थिति पाते ही वेग से बाहर उमड़ पड़ते हैं। वात्सल्य सुख भी उनमें से एक है।। सभी प्राणियों में चाहे वे मानव हों या पशु, यह स्मृति सुख दूसरों के बच्चों में भी समान रूप से अनुभूति कराता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें।
शाम क्या होती, कई घरों में बच्चे
कुनमुनाने लगते,
अपने अपने पेरेंट्स से
पार्क में आने की, दिलकश गुहार
दादू, दादी या मम्मी से लगाने लगते।
सारे बच्चे और बच्चियां,
देखते ही देखते,
रुपहले परिंदों
और परियों से सजते थे,
सच कहूं
वे उस सुरमई शाम में साक्षात
ईश्वर के भेजे, देवदूत मुझे लगते थे।
पांच बजते ही,
बस मिनटो के भीतर,
दर्जनों किड्स उस सुंदर हरिताभ
आभा वाले पार्क की
अनुपम शोभा बनते,
सारे हिलडुल, मिल जुल
ऊंच नीच, चाकलेट बाक्स
जादू कहानी, बर्फ पानी, खेलते, खेलते
झूले की पींगे मार मार, बेधड़क झूलते।
वहीं एक बहुत बूढ़ी, दुबली पतली,
अपाहिज सी, श्वेत सुनहरी,
थकी हारी, बेचारी
कुतिया...
चुपके से उसी समय आ जाती,
और फूलों से लदे पार्क,
उन्हीं बच्चों के पास,
झाड़ी के किनारे,
निज़न अंधियारे
शांत बैठती,
घंटों घंटों रोज, एकटक चुपचाप,
खेलते, दौड़ते, आपस में लड़ते, झगड़ते
बच्चों को
अजीब सी चाहत भरी दृष्टि लिए
भूख-प्यास, को दूर किए
बड़ी सजगता से निहारा करती।
शायद! याद करती,
अक्श पाती, स्मृतियों में खो जाती!
मुझे लगता है, उन बच्चों को देख
दिल में गहरा सुकूं पाती।
बढ़कर इससे भी शायद
वह अपने सालों-साल पैदा हुए
दर्जनों संतानों के
उछलते, कूदते, लड़ते भिड़ते, बचपन
की एक ग्लिम्प्स
इस उम्र में यहां, पा जाती।
सोचता हूँ, वात्सल्य था कहीं,
भीतर उसके,
स्मृति बन पिघलता था,
आदमी के भी बच्चों को
आपस में अच्छे से खेलता देख,
अन्तस से तृप्त होता,
खिलता हुआ, खुश होता था।
जाने न कितनी बार
इन खेलते बच्चों को काटने के
संभावित डर से
मैने खुद
बेदर्दी से भगाया है, उसको
पर हर बार,
डांट डपट के, थोड़ी ही देर बाद
उसको वहीं आस पास
बच्चों को देखते ही पाया है मैने।
जय प्रकाश मिश्र
पग दो: रिश्ते
कुछ लोग बड़े होते हैं
बड़े होने के लिए रिश्तों को खो देते है
और फिर उन्हें लगता है
सामान सा ही वे
रिश्तों को भी वैसे ही खरीद लेते हैं।
पर वे रिश्ते असली नहीं हो सकते
खरीदे हुए नकली होते हैं।
जीवन के नाजुक जटिल मोड़ों पर
इसका परिचय भी दे देते हैं।
जो पैसों से बने वो
संबंध कहा जाता है।
जो कुदरत बनाती है
वहीं रिश्ता कहलाता है।
ये टूटता नहीं तोड़ा जाता है
फिर भी शेष नहीं होता
ये आप में सिला होता है
टूट सकता नहीं, समाया होता है।
जय प्रकाश मिश्र
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