क्या यह! आखिरी बोली लगी थी?

समाज में अनेक बुराइयां आदि काल से रही हैं। दास प्रथा भी उनमें एक रिसता, दर्द देता जख्म रहा है। यद्यपि अब यह भौतिक रूप में समाप्त हो चुका है पर उसकी दुखद यादें पन्नों में और स्मृतियों में बसती हैं। उसी का एक कथानक आपके लिए प्रस्तुत है। आप पढ़ें और मनुष्यता की रक्षा करने की कोशिश जितनी हो सके जरूर करें।

बात तो यह!  पुरानी है, 

पर, वज़ेह... की है,

इसलिए मैं...लिख रहा हूँ; 

शब्द... में इसे, पिरोता हूँ, 

भेजता हूँ आपको। 


मंडी लगी थी, 

वाह! क्या.....

शानदारी... से, सजी थी..।

लोग थे, और लोग... ही 

लोगों के दरम्यां... 

सच कहूं!  सामाँ... बने थे।


कुछ,  सजे.. थे, 

सजाए.. भी , कुछ  गए थे।

पर, बिक रहे थे, 

तैयार थे, बिकने को वे...।

कुछ शौकिया..., 

कुछ, मजबूरियों में भी खड़े थे... ।

पर! भाग्य को सब कोसते! 

एक कोने, 

गुप चुप खड़े थे।


एक सच कहूं!  

भाग्य पर, सब हंस रहे थे,

कुछ तार तार! 

विलपते! 

नीर नयनों में भरे, 

द्रवित हो हो, रो रहे थे।


अधिकतर तो शांत थे, 

सपाट से 

चेहरे थे उनके

ध्यान से वे बात सबकी 

कान देकर सुन रहे थे।


खरीददार भी थे, चहकते, 

चमकते, चहल कदमी, कर रहे थे।

एक से बढ़ एक थे, 

क्या शौक.. रखते थे अरे! वे।


इन सभी के बीच में

एक छोटी, बालिका थी, 

उम्र में, पर, 

पृथुल अंगा, रूप.. में आकार.. में,

और आगे, सच कहूं तो! 

नेह की मूरत 

मुझे वो 

लग रही थी, 

स्वयं के उस उभरते व्यापार में।


निष्पाप ! ... आंखे, 

बाल.. मन!  को संजोती, 

नम्रता को, दृष्टियों में, ढो रही थी।

अभी, छोटी बालिका थी, उम्र में।

पर, पृथुल अंगा, 

रूप..ले, वह मन मोहती थी।


सतेज.. थे 

वे नेत्र...! उसके

जलते... दिए.... थे,

एकटक, 

स्थिर हुए, निश्छल खड़े थे। 

कैसे कहूं! 

दो, दिए मंदिर के भीतर, 

गर्भगृह में 

एक संग, ही जल रहे थे।


नयन उसके, 

सच कहूं, कैसे दिखे! 

रस से भरे, 

स्नेह के स्थान पर, ढुलकते, 

आंसू लिए! 


असहाय था, निरुपाय था, 

वह रूप! कैसा? 

हाय! था, 

कांपती लव जल रही हो,

सच कोई! 

नीलिमा ले अंग में, हो... दहकती! 

मुझे ऐसा लग रहा था।


चोर का सा हृदय उसका, 

उस समय 

धुक-धुकाता, 

दुग-दुगाता, चल रहा था।

हिल... रही हो नाव कोई, 

संतरण.. हो, बहुत 

धीमा....

अपरवश हो स्थिति.., 

तूफान.. का आगाज.. हो! 

भाव.. के संग.. भावनाएं तिर.. रहीं हों

पाट.. पर, उस

एक झंझावात.. का 

आभास.. भीतर पल रहा हो।


भविष्य का दर्पण लिए

वह खड़ी थी, 

हेरती थी, पंक में, नीला कमल

पर क्रूर थी वह नियति, 

उस दिन, साथ उसके, 

किस... देवता का 

वह कर रही थी! 

स्तवन...।


शांत हो, 

परि-शांत हो, सम-मौन हो 

देखती थी भूमि पर 

अपने चरन

अरुणाभ थे वे, कह रहे अपना कथन 

मौन होकर 

मौन का वे कर रहे थे अनुगमन।


आ गया 

नंबर तभी 

उस बालिका... का

सांस रोके.. नीलिमा की मूर्ति का! 


आज वह प्रस्तुत हुईं थी

नी...लामी के लिए!, 

वह कमल बदना, चुप चुप खड़ी थी! 

फाड़ कर, इस तथाकथित 

मनुष्यता का  वक्ष वह....

दो-फाड़ करती 

जगमगाती दीप.ती,  

फड़ पर खड़ी थी।


वह बिक!  रही थी 

नजर सबकी, 

एकटक 

उस पर टंगी थीं।

बुझ रही हो लव कोई.. 

सरे..!  बाजार, चढ़कर, 

देखती वो, शर्म से, पैर अपना 

नतमुखी थी।


लज्जावनत.. थी, 

कृष्णार्पित... सी

मलिन.. मन के नलिन सी... 

चुप.. चुप.. खड़ी थी।


अब सामना था

सत्य से! 

सत्य ही, चहुंओर उसके, 

हर रूप में बिखरा पड़ा था,

यथार्थ था, घेर उसको 

नृत्य करता, नग्न होकर

मुंह चिढ़ाता, 

बाहर नहीं, 

अन्दर से उसको 

दंश देता, प्रति-पग खड़ा था। 


खड़ा था, 

सच! निसर्ग.. ही अब

उस रूप.. में, अस्तित्व.. में 

इस विश्व... के बाजार.. में

घिनौनी.. दुष्वृत्तियों के लोक में 

और उनके पाप पुण्यज खेल.. में।


पर, वह परी.. थी

आजतक.., इस लोक के 

इस खेल से

अपरिचित... थी, 

अलग थी, अंजान थी, 

तृष्णता के रोग से....वह 

अलग ही चट्टान थी।


वह खड़ी, खामोश! चुप थी, 

उदास, धूमिल, 

नयन में आंसू लिए, सशंकित, 

मृग शावकी सी  डरी, सहमी,

भविष्य के दर्पण को बारम्बार 

चुप हो देखती थी।

क्षण, अनुक्षण, सिसकती, 

रिसती.. नयन के कोटरों से

अंतःविलप्पन  कर रही थी।


जो बिके, बांधे गए, 

घसीट कर, बोरे हों ऐसे, 

लारियों में, लाद कर, 

आगे गए।

देख, सारा वाकिया 

वह चिर पुरानी याद में एक खो गई,

याद आई गोद, मां की

गोद में वो सो गई।


तभी उसका हाथ पकडा, 

और, बोला... आततायी! 

बिक रही, यह.. बालिका 

बोली... लगाओ, मिल सभी ।

आंखे संजी, चमकीं अचानक

रूप पर, उस.. टंग गईं।


पर... 

देखते ही देखते ये क्या हुआ? 

कुछ.. ढल गये, कुछ निढल हुए, 

कुछ हाल से बेहाल होकर, थम गये।

कुछ, 

कुछ, टटोलने में लग.. गये 

अवदृष्टि ले, "कुछ" खोजने में लग गए

निर्मम हुए वे.., नेत्र से

मौन ही, संवाद करते, इशारों में

आगे से पीछे 

जानवर से और भी बदतर हुए।

भीतर कहीं.. थे 

छुपे... कुछ

अभिव्यक्त... हो बाहर हुए,

मनुष्यता पंकिल किए।


लतर हो फूलों भरी, 

कमनीय.. 

नाजुक, अनमनी 

वधिक के किसी हाथ में , 

मुझको लगा, बकरी बंधी।


मूक थी, शून्य थी, 

हर चाहना से दूर.. थी

जाने न क्या वह देखती थी,

निरीह.. थी?   हां! निरीह.. थी! 


पर कोई खड़ा था, 

नेपथ्य में!  सब देखता था!  

आंसू बहाता, ठानता, 

कुछ अलग सबसे सोचता था।

कैसे कहूं! मैं राज उसके 

दूर था वह इस जगत से,

जगत के व्यवहार से।


सांवली सूरत खड़ी थी

तुल रही थी दृष्टियों में।

लाख.. से दो लाख.. बढ़ती 

कीमतें..

उसने सुनी, कानों से अपने । 


सब!  कल्पना से दूर था  

जो घट रहा था,

तभी कोई... आ गया 

पांच... लाख, सुना गया

हाथ पकड़ा, वीर वह, 

सनसनी.. फैला गया।

ले बिठाया पास में अति स्नेह से

मुक्त करता हूँ, लिखा उस पत्र पे।

एक दृष्टि वो डालती 

उस व्यक्ति पर उसके भी पहले 

भोर के किसी स्वप्न सा, वह खो गया।

मुक्ति का आदेश ले वो हाथ में

खोजती है, 

अब उसी को, 

छोड़ अपनी मुक्तता 

बंधन में बंधना चाहती है, संग उसके।

क्या ये उसकी आखिरी बोली लगी थी।

तुम बताना आज के इस काल में।

जय प्रकाश मिश्र


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