Posts

Showing posts from August, 2024

सुख प्रद, कल्याण प्रद स्वास्थ्य प्रद शांति प्रद हों।

घरौंदे  घर नहीं, होते!  जरूरत होते हैं;  बेसहारों की, पाखी, पंछियों की। या समय के मारों की। जरूरत भर,  बस!   इतना की,  गुजार लें, कुछ पल। सुरक्षित, बचा पाएं, अपनों को, अपने को, अंडों और बच्चों को। मौसम से,  आदमी से, और क्रूर  कुछ दरिंदों से। अपने… दुश्मन से?   नहीं! नहीं!  वो उनकी ही जात का होगा.. उसका कुछ तो  नियम…कम से कम  प्रतिघात का होगा। भाव: प्राण रक्षा का अंतिम उपाय है आसरा या आश्रय स्थल या घरौंदा। वह जीवन के साधनों की रक्षा के लिए नहीं, प्राणियों की प्राण रक्षा का अंतिम बिंदु है। पर मनुष्यता के शत्रु, कुछ मानव और दरिंदे जैसे कौआ, सर्प, गिद्ध आदि तथा कभी कभी प्रकृति की अपनी बाध्यता इन पर भी दयालु नहीं रहते। अतः इनसे बचें। घरौंदों का  संबंध;  जीवन रक्षा  से अलग!  नहीं! नहीं! कभी नहीं!  धन-दौलत,  रुपए-संपत्ति,  कल की चिंताएं, भोजन वस्त्र, कुछ भी नहीं!  इनका आश्रय लेने वालों पर, ऐसा कुछ होता… ही नहीं। वे.... तो... अपनी … देह  और देह धारियों को.. ले के  भागे पराए…...

अगर ’कंट्रास्ट’ न हो, तो

अगर ’कंट्रास्ट’ न हो, तो ये दुनियां…!   ये जिंदगी…!   ये कायनात…सारी ! धरा, धरातल,  नदिया, पंछी,  भौंरे, तितली  जड़ जंगम, चंहुओर फैली सुंदर, सुंदर फुलवारी !   सोचें तो !  एक बार कैसे लगेंगे !  भाव: एक बार सोचा दुनियां में सारे अच्छे, ईमानदार, सद्चरित्र, सज्जन होते ही दुनियां कितनी सुंदर रहने में खुशनुमा होती। तो आवाज आई! सोच लो! अभी के अभी सारे रंग, और चेहरे समाप्त कर एक रंग और शेप कर देता हूं फिर कहना मत! मैने सोचा रंग नहीं तो सौंदर्य खत्म आकृति एक सी तो अपने पराए कैसे पहचानूंगा दुनिया दारी ही खत्म!  डर गया! रहने दो। सारी की सारी तस्वीरें,  समेटे यादें  खट्टी मीठी!  चलती फिरती  दो, चार, छै… पैरों पर दौड़ती (प्राणी जगत) आकृतियां हमारी;  सबकुछ कैसा लगेगा!  कैसा दिखेगा ?  भाव: सोचने लगा अगर रंग ही सारा खत्म तो बचेगा क्या यहां, ओरिजिनल हम और सारे चित्र बेदम हो जाएंगे। आकृतियां यदि समान हुईं तो सब लोग पहचान में कैसे आएंगे। नहीं ये दुनियां ऐसी ही ठीक है। आखिर!   ये मन, यहां  इस द...

जिंदगी तो जिंदगी है, स्वाद का ही खेल है,

यह संसार एक अजीबो-गरीब सरफेस है, पृष्ठ है, जिसपर यहां आने वाला और आकर जाने वाला प्रत्येक प्राणी अंतिम समय तक अपनी परिश्रम की और परिणामों की कहानी लिखता है। समय अपने निर्मम हाथों उसे सतत मिटाता रहता है। निश्चय ही सारी प्राप्तियां मुल्यहीन हो शून्य हो जाती हैं इसलिए प्रतिदिन जो खुश होकर और प्रसन्न मन से यहां अपना काम करता है वही ठीक कर रहा है। जो यहां धन, संपत्ति बटोरने में लालायित है, हाहाकार मचाए है वह कुछ भी जीवन का आनंद नही पाता। आगे पढ़ें। एक फलक था  पारदर्शी  जमीं ऊपर, लिख रहे थे  दास्ताने जिंदगी,  सब यहीं पर!  साथ मिलकर!  जाने न!   कितनी बार!   लिख कर,  इस पटल पर!  आदमी ने दम भरा है, शान से, अभिमान भरकर!  अपने समय की  उड़ रही  उस रेत पर,  सोचकर, यह लेखनी, उसकी  लिखेगी  अमिट रेखा,  भागते, इस पृष्ठ ऊपर। पर देखता हूं!  गुजर.... जाता!  महक.... सा,  वह !  देखते ही... देखते खुद इसी पर!  जो घुल रहा  हर ओर से  हर क्षण बराबर। है मिटाया, काल ने, हर कहीं,  इस ...

दान कर सर्वस्व अपना, छा गई, बाहों में सागर पा गई है

एक नदी थी, बहती हुई;  वह जिंदगी थी!  अपनी  नहीं!   गुजरी जहां जिस   मोड़ से, आबो.. हवा बदलती हुई!  वह.. नदी थी बहती गई!  भाव: अच्छे लोगों का जीवन अपने लिए नहींलोगो के लिए होता है। जहां वो होंगे आस पास माहौल बदल ही जाता है। पैदा हुई  पाषाण पर.. शीर्ष पर,  उस शिखर पर.. पर.. प्यास थी इस धरा पर  वह तत्परा थी.. सदा तत्पर, नीचे.. ही नीचे...आगे बढ़ते  ले दुग्ध फेनिल.. उतर.. गई। वह नदी.. थी.. बहती... गई। भाव: सतजन कहीं भी पैदा हों, पर उनका लक्ष्य लोगों की सेवा, सहायता करना होता है। वह इसके लिए कष्ट भी नीचे भी अधम और निंदनीय लोगो में भी निवसते है। उनमें घमंड शून्य होता है। वह.. जान थी, इस देश की सम्मान.. थी, इस देश की एक बालिका सी नतखटी...  इस देश पर.. लुटती गई। वह नदी थी.. बहती गई। भाव: अच्छे लोगों में अभिमान नहीं होता, वे अति सामान्य आचरण नटखट से होते हैं। पर देश दुनियां के ली मित्र सहायक होते हैं। ए..क दिन,  वह जीवनी बहती हुई इस धरा पर, पालती जन, प्राण, पाथर  अंत अपना पा गई, देखते ही देखते  इस धरा से लुप्त होती...

जिंदगी भी एक लहर थी! सभी लहरों की तरह!

जिंदगी भी  एक लहर थी!  सभी लहरों की तरह!  भागती रही, हमेशा, अपनी धारों पे  मौजों की तरह!  कौन कहता है  यह बहती रही,  दौरे सफर नायाब किनारों भीतर, खून था,  लाल, गर्म, भरा इसमें,  उबलना आसां था, तभी तो उफन के  बहती रही है, मौकों पर। भाव: जिंदगी रुकती नहीं लहरों सी आगे बढ़ती ही है, समय पर खुश होती, लोगो से मिल उत्साह में भरती मौजों में चलती है। यह हमेशा नियम कानून तोड़ अपनी स्वतंत्रता में रहना चाहती है। द्वितीय सोपान: उम्मीद  भरने... लगे हैं.... खेत यहां कल की.. उम्मीदों.. से लदे,  दाने फसलों से.. झांकें ऐसे लगा दारिद्र्य के दिन दूर हुए।  भाव:  हम उम्मीद में प्रसन्न और आनंदित होते हैं। जब दूर से अजान आती है या मंदिर की घंटी सुनाई पड़ती है हम स्वभाव से खुश हो ही जाते हैं। तृतीय सोपान:  अति विश्वास बादल में कोई!  कैसे  छुप छुप के  निकल सकता है, वो भ्रम ही रहा होगा कोई!  बादल में नहीं रहता है। तभी!  कोई!   चिल्लाता भागता आया!  बोला!  वो वहीं  आज भी छुपा बैठा है। यह बात!...

क्या मिट्टियां भी, अधम अब होने लगी हैं।

एक दिन  अदना डला*          मिट्टी का छोटा ढेला* मिट्टी का! क्षुद्र सा!  हंस पड़ा मुझ पर!  अचानक  देखता!   यह, देखकर मैंने कहा,  क्या बात है ?  तूं!  हंस रहा है!  आज के 'इस आदमी की  जात पर!' मुस्कुरा कहने लगा, कुछ ही दिनो की  बात है, मैं फिर खिलूंगा,  पेड़ के उस साख* पर।      डाली पर* पर  बूढ़ा नहीं  तेरी तरह!  हिल-हिल डुलाता*,      हिलता हुआ कांपता,  जीवन बचाता,  मुंह छिपाता!  मैं फिरूंगा इस धरा पर। खिलखिलाता,  हंसता हुआ,  लालिमा भर देह में;  जा चढ़ूंगा  शीश पर…  उस देवता के, चरण में जिसके तुम्हारी  वंदना,  सिर, मान, सब कुछ, अपनी याचना के भार से झुक जाएगा। इस लिए ही, देख तुमको, मुस्काराता हूं  अनेकों बार मैं। और, बस वही तो  आज भी,  मैं कर रहा हूं,  हंस रहा हूं, आदमी की जात पर। और भी  बात पर इस!  वह कौन सी मिट्टी थी?  जिससे तूं बना था!  क्या मिट्टियां भी  अधम अब...

मैं पूरा नहीं हूंगा कभी, तेरे शिकवों के बिना

पूरे जीवन में बहुत जगह घूमा, पर मां जैसा  दूसरा नहीं देखा। वह अनुभव है, यादों का खजाना है या मेरा धरातल जहां मैं आकर निश्चिंतता के सागर में तैर जाता हूं। क्या कहूं आप पढ़े और .... खुद अनुमान करें। दौरे-जहां... ...,  दौरे-जिंदगी......, गर कोई... मिला  तो वो... मां ही थी। सोचता हूं!   जब भी उसे, आज भी तुरत, मैं  भोला, बच्चा बन जाता हूं। टूट जाती हैं सारी अर्गलाएं इस जमाने की,  मैं मायके में आई  अपनी बेटी की तरह दिल के भीतर से  खिल जाता हूं। याद आते हैं, सर से छूते हुए, जब जब  हाथ उसके,  सच मान!   मैं इस उम्र में भी उन्हीं  सितारों से एकबार, फिर मिल आता हूं। ना जाने! कैसी थी, वो!   मैं कह नहीं पाता!  जब भी झुकती थी… बालों में मेरे,  नजदीक से, जाने क्या?   खोजती थी! याद है!  उंगलियां उसकी!   रेशम से बनी, जिंदा मछलियों की तरह कैसे मेरे बालों में  फिरा करती थीं। मैं इतना बड़ा होकर भी,  कितना, छोटा,  हो जाता था जब वो प्यार से, मुझको  हौले से, झिड़क देती थी। क्य...

तुम मेरे कभी पास आओ,

तुम मेरे कभी पास आओ, तुम मेरे!   कभी पास आओ!  छू सकें पलकें हमारी, छू सकें पलकें हमारी कुछ इस तरह  नजदीक आओ। तुम कभी.... मेरे  पास.. आओ। देखती!   मैं, देखती..  डू….ब, जा…ऊं!   तुझ में, ही....,  पू…री तरह एक होकर बह सकूं,  तेरे साथ मिलकर  साथ चलकर। ना…बचूं..., ना  बचूं ,  मैं... ना बचूं, कुछ इस तरह  मुझमें समाओ!  तुम मेरे कभी पास आओ। कुछ इस तरह नजदीक आओ!    थिर खड़े,  हम तुम कहीं हों,  कुछ सट के ऐसे एक दूसरे से,  आज ऐसे, इस तरह देखता  "वह मुस्कुराए.." गुनगुनाता गीत.. कोई, दिल में उसके उमड़ आए!  कुछ इस तरह नजदीक आओ;  तुम मेरे कभी  पास आओ। रो पड़े भीतर से वो सिसकियां पर ले न पाए, आंखे भरें,  डबडबा जाएं, पर बूंद बन ना टपक पाएं,  सोचता कुछ दूर जाए, ठिठक जाए, वो वापसी का मन बनाए!  सच!  इस तरह तुम!  पास आओ!  आज मेरे पास आओ। हमें देखने  पीछे मुड़े जब मुझको छुओ कुछ  इस तरह तब हिलकते दिल को पकड़ वह  कसमसाता नजर आए। तुम मेरे ...

चपल मछली सी उछलती जिंदगी!

मुक्तक: १ शीर्षक: बरसती ये बदलियां सजल.. इन..के नयन  मृदु मधुर इनके बयन। धेनु से. पावन… हैं ये  झरने… को..हैं  बेचैन। मुक्तक: २ शीर्षक: दुनियां का निराले ढंग नदी की... हर  नज़ाकत... को, किनारे... थामते ही हैं।  वो चाहे जिस कदर घूमे, हमेशा... साथ देते हैं। वही जब पाट भरती है,  उन्ही को काट देती है। नहीं तब याद रखती है उन्हीं की गोद खेली थी। मुक्तक: ३  शीर्षक: वर्षा-रितु में पेड़ो की डालियां बाल शिशु सी  ये बुलाती, विह्वला हो, हाथ पैरों को हिलाती झूमती हैं पास आतीं लरछियों से बन रहीं ये डालियां। अचकचातीं, हिलकतीं हैं। हिचकचाती इठल करती खेलती है। पुष्प सा सुंदर सलोना  मुख लिए, मुस्कुराती  नटखटी, किसी बालिका सी, मचलतीं हैं। मुक्तक:  ४ शीर्षक: जंगल हमारे इन सूखे, भयानक  जंगलों में  जब कभी मैं  बैठ कर,  चुपचाप सुनता हूं!  कहीं, से आ रही उन पग बढ़ाते चल रहे  बगुलों के मुख की ये  मरमराती फटी सीआवाज ! फुसफुसाती  बहती हवाएं !  साथ में ले चनकती,  कुछ खनकती सी  बूढ़ी, झड़ी,  सूखी हुई पर ...

वह लौट आया था वहीं पर, यह कम नहीं था

आज हम अपने बड़े लोगो के किए गए अति परिश्रम वाले कामों को अपने आधुनिकता और चमचमाती सुविधाओं के नुकसान देह औद्योगिकरण के सामने बिल्कुल तरजीह नहीं देते। जबकि पहले लोगो के कार्य अपने आने वाली पीढ़ी को खुश रखने के लिए किए जाते थे। आज हम बस अपने आज की सुख-सुविधा के लिए संपूर्ण प्रकृति को दूषित ही नहीं, नुकसान ही नहीं नष्ट भी कर रहे हैं। इसी पर लिखी गई यह मार्मिक पोएम पढ़ें। वो खुश हुआ सब देखकर  इतना, बहुत था, इसके आगे, आज से उस दृश्य का  मिटना भी तय था। आसां नहीं था, जो भी था;   जैसा वहां, उसको वहां  उस हाल में  लाना कठिन था। एक नदिया,  मचलती, पानी भरी,  हुंकार करती, हुंमकती पल-छिन सरकती, छलकती उस सूखती सी रेत में!  सच कहूं!   होना कठिन था!  बस,  वह खुश हुआ  देखकर उस  ”नदी को”, मेरे लिए ’इतना’’  बहुत  था। वह खड़ा था,  जिस जगह पर, वह जगह  बिलकुल आम थी,  कुछ भी नहीं था,  खास उसमे, बस रास्ते के पास थी।  पर पेड़! हां वह पेड़!  जो शीतल सघन  छाया किया था, जल रही, उस धूप में छाता ...

एक दिन बुलाया बादलों को घर पे अपने।

ए..क दिन मैंने बुलाया  बादलों को घर पे अपने, सजवा दिया घर और आंगन  दीपकों से महल जैसे। लगवा दिए नव आम्र पल्लव*  बांध कर, उन रस्सियों में  जो बंटी थीं मूंज* की ताजी हरी हरी छाकलों* में। बांध कर उन तोरणों* से चहुंओर जो गुप-चुप  पड़े थे, बाहर निकलते दीवार ऊपर,  एक युग से  चू रही उन ओरियों* के। देख कर सारा नजारा हंसने लगी दीवार...  घर की आज मेरे साथ...  फिर से। गाय का गोबर  मंगाया,  घर पुताया,  गगरा* धुलाया,  उबहन* बंधाया,  निकली हुई उन  सुतलियों* से। तालाब से  जिसे धुल  निकाला था,  कभी हाथ से ही काछ* कर  उन सनइयों को। खुद  तभी स्कूल में  जाने से पहले;  जब पढ़ रहा था  आठ में। याद है!  दस दिन लिए थे,  सड़ने को इसने!  तब बना संठा*, सुतलियां सनइयों से। कांख में दाबे हुए  उन सुतलियोंं को हाथ में डेरा* घुमाते  घूमता था। कातता था बाध* कैसा  एक सा वर्षात में, खाली समय में।   घूमता था गांव में  महक लेते, तल रही  उन रिकवंचों* का,  शुद्ध ...