चपल मछली सी उछलती जिंदगी!
मुक्तक: १
शीर्षक: बरसती ये बदलियां
सजल.. इन..के नयन
मृदु मधुर इनके बयन।
धेनु से. पावन… हैं ये
झरने… को..हैं बेचैन।
मुक्तक: २
शीर्षक: दुनियां का निराले ढंग
नदी की... हर
नज़ाकत... को,
किनारे... थामते ही हैं।
वो चाहे जिस कदर घूमे,
हमेशा... साथ देते हैं।
वही जब पाट भरती है,
उन्ही को काट देती है।
नहीं तब याद रखती है
उन्हीं की गोद खेली थी।
मुक्तक: ३
शीर्षक: वर्षा-रितु में पेड़ो की डालियां
बाल शिशु सी
ये बुलाती, विह्वला हो,
हाथ पैरों को हिलाती झूमती हैं
पास आतीं लरछियों से
बन रहीं ये डालियां।
अचकचातीं, हिलकतीं हैं।
हिचकचाती इठल करती खेलती है।
पुष्प सा सुंदर सलोना
मुख लिए, मुस्कुराती
नटखटी, किसी बालिका सी, मचलतीं हैं।
मुक्तक: ४
शीर्षक: जंगल हमारे
इन सूखे, भयानक
जंगलों में
जब कभी मैं
बैठ कर,
चुपचाप सुनता हूं!
कहीं, से आ रही
उन पग बढ़ाते चल रहे
बगुलों के मुख की
ये
मरमराती
फटी सीआवाज !
फुसफुसाती
बहती हवाएं !
साथ में ले
चनकती,
कुछ खनकती सी
बूढ़ी, झड़ी,
सूखी हुई पर कुरकुरी सी
आ पड़ी है जमीं पर जो आज
पत्तियां इन हलचल मचाते पेड़ की।
क़ुर कुरर आवाज करते,
उड़ रहे पंछी सुनहरे,
कुछ बटेरों का यहां बैठे हुए
आग्रही ये गुर्रगुराना,
मोर का यह पिंहकना कलरव मचाना
चिरचिराती सुर उठाती फुदकती
यह गौर रंग की, गौरैया
बंदरों का नृत्य अद्भुत,
कूकती कोयल गहर से बोलती है।
झिंगुरो का अनवरत यह नाद बजता
हर तरफ है।
क्या कहूं शोभा
निराली यार
अपने पास फैले
इस सघन वन की
विस्मित हुआ मैं देखता हूं!
भूल जाता हूं जगत को आज!
मुक्तक: ५
शीर्षक: जीवन क्या है
आखिर मैं भी
आ ही पहुंचा,
कामदगिरि के
अचल शिखर पर।
नीचे हैं,
अब सारे पर्वत,
देख रहा हूं
हाहाकार
हवाओं का भी
सुन सकता हूं।
शिथिल
पड़े लोगों को
कोसा करता था तब
धिक्कारा करता था उनको
बैठे रहते थे, खाली जो जो
दिन दिन भर।
आज वही
आ बैठा
हूं मैं ।
तब नहीं पता था
महा-प्राप्ति,
जिसको समझा था, शिखर प्रवर वह!
शांत अकेला बैठा होगा!
खाली दिनभर!
उसके आगे
शांति वहां है,
कर्म कहां है।
देख रहा हूं
चढ़ कर
इस सारी दुनियां के ऊपर!
निशिदिन चलकर!
सारे जीवन भर!
पर,
ऊ-पर
सबसे ऊपर है
जो बैठा है दिन दिन भर चढ़ कर
गिरने का खतरा तो अब भी
है ही उसपर है।
मुक्तक: ६
शीर्षक: प्रकृति व मानव
मैं बना बादल
जब इनमें
चाहता हूँ घूमना,
बदलियों की सांवली,
नम, बावली,
सूरत अनोखी देखता हूं!
घुमड़ती, जो छत पे मेरे
रात दिन नजदीक इतने।
एक बिजली चमक कर
चमचम चमकती धार सी सुंदर चपल
वर्जना, थी चाहती मुझको तुरत,
देखकर, निज पार्श्व में इतने!
अचानक!
मेघ करता गर्जना
गह्वर तभी,
चिल्ला उठा!
तुम विकल, कलयुगी मानव
पाप से अभिप्रेत हो,
खुद के बनाए, अपने विनाशक
"यंत्र में उलझे रहो
आज को छोडो हमेशा
कल में ही उलझे रहो "
तुम नहीं स्थिर कभी, तुम सदा गति मान हो
तन से नहीं, मन की गति, तुमपे ही कुर्बान हो।
मुक्तक: ७
शीर्षक: सिंहावलोकन पूर्व का
पिघलता जब हृदय मेरा
आ कोई तब चूम लेता,
गर्म स्वांसों से भरा…
कंपित अधर से हाथ मेरा।
लालिमा थी जिन मुखों पर
कालिमा अब क्यों समाई,
दिव्य जिनका रूप था
द्रव्य में वह क्यों समाई।
मैं विलग कब सृष्टि से था
मैं अलग कब दृष्टि से था,
ईशान की लाली से हटकर
कब मेरा अस्तित्व कुछ था।
भीग जाता हूँ हृदय तक
लहर के उत्थान पर,
टूटती जब धार इसकी
मन की चंचल सेज पर।
देखता हूँ, हश्र जब
चंचल लहर के वेग का,
सिमट जाता हूं स्वयं में
व्यर्थ सारा खेल है।
लहर जीवन की जब आई
संग खुशियां थीं समाई
आस कितनी थी लगाई,
विहंस दुनियां थी बनाई।
जय प्रकाश मिश्र
Comments
Post a Comment