क्या मिट्टियां भी, अधम अब होने लगी हैं।
एक दिन
अदना डला* मिट्टी का छोटा ढेला*
मिट्टी का! क्षुद्र सा!
हंस पड़ा मुझ पर!
अचानक देखता!
यह, देखकर
मैंने कहा,
क्या बात है ?
तूं! हंस रहा है!
आज के
'इस आदमी की जात पर!'
मुस्कुरा कहने लगा,
कुछ ही दिनो की
बात है,
मैं फिर खिलूंगा,
पेड़ के उस साख* पर। डाली पर*
पर
बूढ़ा नहीं
तेरी तरह!
हिल-हिल डुलाता*, हिलता हुआ
कांपता,
जीवन बचाता,
मुंह छिपाता!
मैं फिरूंगा इस धरा पर।
खिलखिलाता,
हंसता हुआ,
लालिमा भर देह में;
जा चढ़ूंगा
शीश पर…
उस देवता के,
चरण में जिसके तुम्हारी वंदना,
सिर, मान, सब कुछ,
अपनी याचना के भार से
झुक जाएगा।
इस लिए ही,
देख तुमको, मुस्काराता हूं
अनेकों बार मैं।
और, बस वही तो
आज भी, मैं कर रहा हूं,
हंस रहा हूं, आदमी की जात पर।
और भी
बात पर इस!
वह कौन सी मिट्टी थी?
जिससे तूं बना था!
क्या मिट्टियां भी
अधम अब
होने लगी हैं!
सच! तेरी जैसी!
भाव: आज का आदमी युद्ध, नैतिक अपराध, जघन्यता की सीमा, शिशुओं से बलात्कार की सीमा तक जा पहुंचा है। लोग अबोले बच्चों, नासमझ बच्चो, बूढ़ों, महिलाओं पर सीमांत श्रेणी के अक्षम्य कार्य में लिप्त हैं। इसलिए मिट्टी भी उसकी करतूतों पर हंस रही है, पूरी मानवता पंकिल हो चुकी है। बड़े बड़े लोग युद्ध को उभार रहे हैं, सामरिक हथियारों की बेंच में जुटे हैं। सोच का विषय है।
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