अगर ’कंट्रास्ट’ न हो, तो
अगर ’कंट्रास्ट’ न हो, तो
ये दुनियां…!
ये जिंदगी…!
ये कायनात…सारी !
धरा, धरातल,
नदिया, पंछी,
भौंरे, तितली
जड़ जंगम,
चंहुओर फैली
सुंदर, सुंदर
फुलवारी !
सोचें तो !
एक बार कैसे लगेंगे !
भाव: एक बार सोचा दुनियां में सारे अच्छे, ईमानदार, सद्चरित्र, सज्जन होते ही दुनियां कितनी सुंदर रहने में खुशनुमा होती। तो आवाज आई! सोच लो! अभी के अभी सारे रंग, और चेहरे समाप्त कर एक रंग और शेप कर देता हूं फिर कहना मत! मैने सोचा रंग नहीं तो सौंदर्य खत्म आकृति एक सी तो अपने पराए कैसे पहचानूंगा दुनिया दारी ही खत्म! डर गया! रहने दो।
सारी की सारी तस्वीरें,
समेटे यादें
खट्टी मीठी!
चलती फिरती
दो, चार, छै…
पैरों पर दौड़ती (प्राणी जगत)
आकृतियां हमारी;
सबकुछ कैसा लगेगा!
कैसा दिखेगा ?
भाव: सोचने लगा अगर रंग ही सारा खत्म तो बचेगा क्या यहां, ओरिजिनल हम और सारे चित्र बेदम हो जाएंगे। आकृतियां यदि समान हुईं तो सब लोग पहचान में कैसे आएंगे। नहीं ये दुनियां ऐसी ही ठीक है।
आखिर!
ये मन, यहां
इस दुनियां में, कैसे रमेगा।
किसी पर, बिना कुछ
उछलता देख कैसे रुकेगा!
भाव: विपरीतताओं और असमानताओं से ही इच्छा उत्पन्न होती है, मन इच्छा का कंदुक रूप है। उसी में बसता है।
इसलिए….कहता हूं:
कंट्रास्ट ....जीवन उत्स है,
अपेक्षा का..... आधार है।
बराबरी.... की चाहत.. में
सूक्ष्म.... और.... लौकिक
गतिमयता ही तो संसार है।
भाव: इस प्रकार कंट्रास्ट में उमंग अपनी खुराक पाती है, जीवन गति लेता है और आगे बढ़ता है।
यह कंट्रास्ट ही तो,
मन का खतोना है
भाई मेरे ! यही तो !
इस दुनियां..... का !
असली जादू टोना है।
भाव: मन ही सबसे ताकतवर अंग है और दुनियां के हर कार्य में इसी का हस्तक्षेप होता है। यह जादुई ताकत से भरा हुआ है।
यह विपर्यय ही
अन्यथा का
जन्मदाता है,
हमारी आधी से अधिक
अनुभूतियों का
निर्माता है।
इसे कंट्रास्ट कहें
या विपर्यय
यही है,
आत्मभूत, आत्म का
सहज रूप
सच्चा निर्णय।
भाव: विपर्यय से ही हमे किसी भी अनुभूति की दूसरी उल्टी अनुभूति होती है। जैसे संपन्नता घटने से बिपन्नता, शीतल वायु से ही गर्म वायु की अनुभूति संभव है। यह स्वतः आत्मभूतं होता है।
कुछ ऐसा ही
जैसे सुख के हटने से
आत्मभूत पैदा हुआ दुख ।
देखते देखते पूर्णिमा के चांद का
बादलों में छिप जाना।
प्रकाश से अंधेरे का हर तरफ
फैल जाना।
बहती बयार शीतल रुक जाए
गर्मी लगे, कुछ कुछ वैसा होना।
भाव: जब भी अच्छी चीज या स्थिति समाप्त होती है तो उससे उल्टी अनुभूति तुरत होने लगती है। ठंड हटते ही गर्मी या प्रकाश हटते ही अंधेरा आदि।
क्या पूरी जिंदगी!
सादी! सच्ची!
उबाऊ सी! नहीं चाहिए!
इसीलिए कुछ तो
चाहिए ही था,
थोड़ा रंगीन! कुछ नमकीन!
चटख, कभी गमगीन!
हां हां, कुछ ऐसा
ही अच्छा सा आईन*। (दृश्य, समां)*
जी हां,
इसीलिए तो
सारी नद, नदियां,
नाले, पोखरे, ताल
बेतहासा भागते,
एक दूसरे में जुड़ते
विशाल, ऊर्जा भंडार करते,
महा समुद्र, सागर, महासागर
चौबीस घंटे जल-उर्मियों से हैं पटे!
भाव: जीवन में अगर कंट्रास्ट नहीं होगा तो यह सादा, सीधा, ब्लंट नहीं बचेगा। इसलिए तीखा, चटकोर, नमकीन, बेरस भी स्वाद आदि मन को लगाने के लिए चाहिए ही। इसी जीवन को गतिमय बनाए रखने हेतु प्राकृतिक संरचनाओं में भी लहरें, तरंगे, लगाव, बिलगाव होता रहता है।
इसीलिए तो तरल,
मगन, जीवंत
सतत उत्स तरंगित,
निशि दिन बना रहता है
अनवरत, अथकित, रातों दिन!
रस पैदा हो, राग पनपे, कुनबे बने
जो समय की नदी के
बहते पानी में कहीं तो दिखे।
सतह पर ऊपर,
थोड़ा भीतर
या नीचे
पर, पानी से, अलग
रंग, ढंग, चितवन लिए।
भाव: जीवन जीना और जीवन जिंदा दिखना दोनो अलग चीजे हैं। कंट्रास्ट ही जीवन को निखार देता है। विभिन्नता रसों की हो, रागों की हो या लोगों की हो उसी से जीवंतता आती है।
पानी का पात्र या नद नाले तब और सुंदर हो जाते है जब उनमें रंगीन मछलियां, कमल का पुष्प खिलता है। वह भी एक कंट्रास्ट ही है।
पर कभी कभी
यही कंट्रास्ट
भारी भी
पड़ जाता है
बस…. थोड़ा सा
ज्यादा हुआ
कि ब्लड प्रेशर
बढ़ जाता है।
मैने तो पहले भी सलाह दी थी
पानी आए, आंधी आए
अपनी लाइन पर खड़े रहो
ये दुनियां है, इसे जाने दो
इसकी नकल
कम से कम, तुम तो मत करो।
जीवन में मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। अति किसी भी चीज की चाहे कंट्रास्ट की ही क्यों न हो समस्या पैदा करती है। और इस ज्यादती से रोग, व्याधि, चिंता पैदा होती हैं।
जय प्रकाश मिश्र
Comments
Post a Comment