मैं पूरा नहीं हूंगा कभी, तेरे शिकवों के बिना

पूरे जीवन में बहुत जगह घूमा, पर मां जैसा  दूसरा नहीं देखा। वह अनुभव है, यादों का खजाना है या मेरा धरातल जहां मैं आकर निश्चिंतता के सागर में तैर जाता हूं। क्या कहूं आप पढ़े और .... खुद अनुमान करें।

दौरे-जहां......, 

दौरे-जिंदगी......,

गर कोई... मिला 

तो वो... मां ही थी।

सोचता हूं!  

जब भी उसे, आज भी

तुरत, मैं 

भोला, बच्चा बन जाता हूं।

टूट जाती हैं सारी अर्गलाएं

इस जमाने की, 

मैं मायके में आई 

अपनी बेटी की तरह

दिल के भीतर से 

खिल जाता हूं।


याद आते हैं,

सर से छूते हुए, जब जब 

हाथ उसके, 

सच मान!  

मैं इस उम्र में भी उन्हीं 

सितारों से एकबार, फिर मिल आता हूं।


ना जाने! कैसी थी, वो!  

मैं कह नहीं पाता! 

जब भी झुकती थी…

बालों में मेरे, 

नजदीक से, जाने क्या?  

खोजती थी! याद है! 

उंगलियां उसकी!  

रेशम से बनी, जिंदा मछलियों की तरह

कैसे मेरे बालों में  फिरा करती थीं।


मैं इतना बड़ा होकर भी, 

कितना, छोटा, 

हो जाता था

जब वो प्यार से, मुझको 

हौले से, झिड़क देती थी।


क्या देखती थी?  

वो, 

मुझमें

खुश हो के, 

एक चहकती चिड़ियां सी 

फुदकने की कोशिश करती, उठती

बिना किसी शिकवे शिकायत

फूल सी खिलती, 

आंखों में ताजे बेला के फूलों को भरे 

निदाग, खुशबूदार हंसी 

उसके होठों में 

कितने गहरे में उतर आती थी।


मुझे छूते ही 

उसे, जैसे, 

नए  "पर" ही

निकल आते थे,

एक पकड़े हुए पंछी की 

गरमाहट मुझमें 

कितनी जल्दी से भर आती थी।


सिफत तेरी 

सच कहता हूं, 

ये तारों की 

शीतल नीरव छांव,

ये चांदनी, 

फूलों सी बिखरी सारी;   

ये सरसराती बहती 

महकती लहराती हवा,

ये दूधिया दूधिया सी फैली 

पूरी दुनियावी सदा; 

मां की अपनेपन से भरे

उस जादुई, एक मुस्कान के आगे 

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं! 

जय प्रकाश मिश्र


शीर्षक:  मां 

मैं.. कमतर ही.. रहूंगा 

उससे इस सारे 

दौरे-जिंदगी,

पूछ तो कैसे?  

अरे! 

"दुआ मां की" 

उस पर थी

मेरे…. पास…. 

न..... थी।


शीर्षक:  मैं...

कमबख्त!

कहने को तो 

वो आदमी कमाल का था,

पर 

बस चार 

लब्जों के सिवा, 

उस पर, 

कुछ और था ही नहीं।


शीर्षक:  गृहस्ती और मैं

उजड़ने को तो, 

ये घर, भी

उजड़ा है 

कई बार, मत पूछ इसे,

ये तो 

मेरी आदत है, 

हर बार इसे, मैं

सलीके से 

बसा लेता हूं।


शीर्षक:  लोगों के बीच मैं 

मेरे आस पास जो कुछ भी 

फैला है, यहां

कुछ और नहीं, 

सब मिल जुल के, 

मेरा अपना 

सांचा ही है।


शीर्षक: मेरी शिकायत और मैं

मैं पूरा नहीं हूंगा 

तेरे शिकवों के बिना,

तेरे पास सही, 

पर वो अमानत हैं मेरी। 

जय प्रकाश मिश्र

Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता