एक दिन बुलाया बादलों को घर पे अपने।

ए..क दिन मैंने बुलाया 

बादलों को घर पे अपने,

सजवा दिया घर और आंगन 

दीपकों से महल जैसे।


लगवा दिए नव आम्र पल्लव* 

बांध कर, उन रस्सियों में 

जो बंटी थीं मूंज* की ताजी हरी

हरी छाकलों* में।

बांध कर उन तोरणों* से

चहुंओर जो गुप-चुप 

पड़े थे, बाहर निकलते

दीवार ऊपर, 

एक युग से 

चू रही उन ओरियों* के।


देख कर सारा नजारा

हंसने लगी दीवार... 

घर की

आज मेरे साथ... 

फिर से।


गाय का गोबर 

मंगाया, 

घर पुताया, 

गगरा* धुलाया, 

उबहन* बंधाया, 

निकली हुई उन 

सुतलियों* से।


तालाब से 

जिसे धुल 

निकाला था, कभी

हाथ से ही काछ* कर 

उन सनइयों को।

खुद तभी स्कूल में 

जाने से पहले; 

जब पढ़ रहा था 

आठ में।


याद है! 

दस दिन लिए थे, 

सड़ने को इसने! 

तब बना संठा*, सुतलियां

सनइयों से।


कांख में दाबे हुए 

उन सुतलियोंं को

हाथ में डेरा* घुमाते 

घूमता था।

कातता था बाध* कैसा 

एक सा

वर्षात में, खाली समय में।

 

घूमता था गांव में 

महक लेते, तल रही 

उन रिकवंचों* का, 

शुद्ध सरसों तेल में,

छनछनाती बेसनों संग 

सिंक रही थीं,

भीगते उन आंगनों में 

खनकते कंगन लिए

भौजाइयों* के हाथ से


बांध गगरा 

कुएं में डाला,

पैर रखा बांस की 

लचकती सरदर* के ऊपर।

चार डुबकी डुब डुबाता

भर उठा गगरा बराबर।

खींचता उबहन गले तक

पानी निकाला, 

ले चला

बचता बचाता, द्वार तल तक।


इनार* का पानी भराया

कच्चे कलश में;  

रख दिया उसे बीच में

द्वार पर, 

स्वागत में उसके।


चौका पुराया* 

हाथ से पीसे हुए 

मैदे को लेकर,

पीसा गया था 

मेरे ही घर गाड़े हुए

जांते* में यह,  

शुभ गीत गाते

तरुणियों ने।

कलश पर परिया * भराई 

चावलों की

कूटे हुए उस धान से 

मूसलों से ओखली में 

साफ करके 

सूप से,

छांटा गया 

कंडिया में, रख

फिर मूसलों से।


कच्चे कलश को 

यव बिछाकर भूमि पर

गाय के गोबर से इसको 

गोइंठ कर,

फूल पत्ती से सजाया 

बहुत सुंदर,

आम की गुम्फा लगाई 

कलश ऊपर,

चावलों से भरी ढकनी 

उसके ऊपर।


दीप माटी का बना, 

सबसे ऊपर, रख दिया।

गाय के उस 

परम पावन घी का 

दीपक जल उठा,

अद्भुत मनोहर.. परम सुंदर।

निकट आए.. सकल बादल

देखकर स्वागत वो.. अपना

घूमते थे... हो के... पागल।


गाने लगीं सब नारियां गीत चुन चुन

मधुर मीठे,

बह उठा बादल का दिल सब देख कर

उत्सव अनूठे।


रिमझिम हुई बरसात उस दिन 

नाचतीँ थी बदलियां

स्वागत हुआ बादल का ऐसा

खुश हुआ जो था जहां।


जय प्रकाश मिश्र

आम्र पल्लव*:  आम की हरी पत्ती

मूंज* की ताजी हरी छाकलों*: आर्गेनिक रस्सी

तोरणों* से: लकड़ी के बने सजावटी टोड़ें दीवार  की बाहरी सतह पर कैंटीलीवर से बाहर निकलते 

ओरियों* के:  कच्चे घरों में मिट्टी के खपरैल से गिरती पानी की धार वाली जगह।

गगरा*:  कुएं से पानी निकलने का धातु का कलश जैसा बर्तन किसका पेंदा चौरस हो।

उबहन*: मोटी बटी हुई सन की रस्सी पानी निकलने के लिए।

सुतलियों*:  देसी रेशेदार सन को पोटली।

काछ* कर: ऊपर से हाथ से दबाकर साफ करना

संठा*: सरफुलाई सनई के पौधे की डनठल।

डेरा*: रस्सी बनाने का कातने के लिए लकड़ी का

छोटा सा उपकरण।

बाध* : सुतली से बनाई गई पतली रस्सी।

रिकवंचों* : अरवी के हरे पत्ते से बनने वाला स्वादिष्ट नमकीन गर्मागर्म पकोड़ा जैसा।

भौजाईयों*: बड़े भाई की पत्नियों

सरदर*: कुएं पर बीचोबीच रखा हुआ सपोर्ट के लिए लकड़ी का बना संरचना।

इनार: कच्चा कुआं

चौका पुराया*:  आंटे से बनाया गया पूजा हेतु

भूमि पर डिजाइन दार रेखाएं आदि।

जांते* या जांता:  आंटा पीसने की चकिया

कड़ियां*: पत्थर की शंकु नुमा संरचना चावल बनाने के काम में आती है 

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