जिंदगी तो जिंदगी है, स्वाद का ही खेल है,
यह संसार एक अजीबो-गरीब सरफेस है, पृष्ठ है, जिसपर यहां आने वाला और आकर जाने वाला प्रत्येक प्राणी अंतिम समय तक अपनी परिश्रम की और परिणामों की कहानी लिखता है। समय अपने निर्मम हाथों उसे सतत मिटाता रहता है। निश्चय ही सारी प्राप्तियां मुल्यहीन हो शून्य हो जाती हैं इसलिए प्रतिदिन जो खुश होकर और प्रसन्न मन से यहां अपना काम करता है वही ठीक कर रहा है। जो यहां धन, संपत्ति बटोरने में लालायित है, हाहाकार मचाए है वह कुछ भी जीवन का आनंद नही पाता। आगे पढ़ें।
पारदर्शी
जमीं ऊपर,
लिख रहे थे
दास्ताने जिंदगी,
सब यहीं पर!
साथ मिलकर!
जाने न!
कितनी बार!
लिख कर,
इस पटल पर!
आदमी ने दम भरा है,
शान से, अभिमान भरकर!
अपने समय की
उड़ रही
उस रेत पर,
सोचकर,
यह लेखनी, उसकी
लिखेगी
अमिट रेखा,
भागते, इस पृष्ठ ऊपर।
पर देखता हूं!
गुजर.... जाता!
महक.... सा,
वह !
देखते ही... देखते
खुद इसी पर!
जो घुल रहा
हर ओर से
हर क्षण बराबर।
है मिटाया, काल ने,
हर कहीं,
इस पृष्ठ को
एक सा
हर दिन बराबर,
रात दिन!
अनगिनत हाथों!
हर कहीं पर!
दीखते उस
पार के
धूमिल
क्षितिज तक,
दृष्टि जाती आज मेरी,
है, जहां तक।
एक भी
धब्बा नहीं है
आज ऊपर,
इस जमीं पर।
नाज़ था!
जिनको की
"हम वो शख्स हैं,
है 'जहां' हमसे,
हमीं वो शख्स हैं।"
आज घुप हैं,
गुमनाम.....
गलियों में कहीं
बेनाम.... गुम हैं।
पर लिख रहा है,
हर कोई...
नगमा नया... सा,
कुछ खुशी... में,
कुछ... दुखी हो
कोइ बैठा सोचता है,
को..ई ठिठकता,
लिख मिटाता है कोई
कोई पुनः लिखता!
आगे है बढ़ता,
पीछे हटता
भ्रमित होता,
रोता, बिलखता
लिख रहा है,
देखता हूं
हर कोई!
जाने न क्या क्या!
मैं कहूं क्या!
कोई गीत लिखता है,
किसी पर;
कोई गान करता है
किसी का,
रात दिन, भी
हो रहे हैं,
संग जिंदगी
सब जी रहे हैं।
एक था
इनमे चतुर,
वो जिंदगी से दूर था।
चुपचाप वह साधन इकठ्ठा
जिंदगी का कर रहा था।
साधन के संग संपन्नता
पर दृष्टि थी उसकी प्रचुर,
अपनी समझ से....
मानता...;
खुद को चतुर! खुद को चतुर!
रात दिन को एक करता,
सोचता था रात दिन,
ऐश सारी मैं करूंगा,
बढ़के सबसे, एक दिन।
पर जिंदगी तो जिंदगी है
स्वाद का ही खेल है,
जो, नदी है, आज दिखती
उससे कहां, कल मेल है।
बह गया पानी जो उसमे
घाट को उस छोड़कर
फिर कहां आएगा वह अब
सब चार दिन का खेल है।
'पर' लगे पंछी बने दिन। (पंख यानी जल्दी समय भागा)
उड़ने लगे आकाश में! (टाइम पूरा)
रंग बदलती देह निशि दिन,
केश चांदी हो गए। (बूढ़ा हो गया)
मन हुआ बूढ़ा
शिथिल तन हो गया
जो बचा था शेष सारा
अपना, पराया हो गया। (शक्ति क्षीण, लोग ले भागे )
तो कह रहा हूं, इसलिए
जिंदगी है: आज में
काल बन कर: जाने कितने कल
बह चुके हैं: आज में।
नदी की: धारा है ये
आज जो: बह जाएगी
जिंदगी में: फिर नहीं यह
लौट कर: कभी आएगी।
जीवन जिओ बस आज का
खुश रहो तुम आज में
कल तो कल कल बह रहा है
तुम जियो बस आज में।
सार: वर्तमान का महत्व जाने यही आपका अतीत बन जाएगा और यह वर्तमान आपके भविष्य की कुंजी भी है और असली जीवन भी यही है। इसे प्रसन्नता से खुशी से आनंद से जिएं जितना संभव हो। अपना हर काम प्रायश्चित रहित करें।
जय प्रकाश मिश्र
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