वह लौट आया था वहीं पर, यह कम नहीं था

आज हम अपने बड़े लोगो के किए गए अति परिश्रम वाले कामों को अपने आधुनिकता और चमचमाती सुविधाओं के नुकसान देह औद्योगिकरण के सामने बिल्कुल तरजीह नहीं देते। जबकि पहले लोगो के कार्य अपने आने वाली पीढ़ी को खुश रखने के लिए किए जाते थे। आज हम बस अपने आज की सुख-सुविधा के लिए संपूर्ण प्रकृति को दूषित ही नहीं, नुकसान ही नहीं नष्ट भी कर रहे हैं। इसी पर लिखी गई यह मार्मिक पोएम पढ़ें।


वो खुश हुआ

सब देखकर 

इतना, बहुत था,

इसके आगे, आज से

उस दृश्य का 

मिटना भी तय था।


आसां नहीं था,

जो भी था;  

जैसा वहां,

उसको वहां 

उस हाल में 

लाना कठिन था।


एक नदिया, 

मचलती, पानी भरी, 

हुंकार करती, हुंमकती

पल-छिन सरकती, छलकती

उस सूखती सी रेत में! 

सच कहूं!  

होना कठिन था! 

बस, वह खुश हुआ 

देखकर उस 

”नदी को”,

मेरे लिए

’इतना’’ 

बहुत 

था।


वह खड़ा था, 

जिस जगह पर,

वह जगह 

बिलकुल आम थी, 

कुछ भी नहीं था, 

खास उसमे, बस

रास्ते के पास थी। 


पर पेड़! हां वह पेड़! 

जो शीतल सघन 

छाया किया था,

जल रही, उस धूप में

छाता लगाए, साथ उसके 

खुद खड़ा था।

उस पेड़ का 

इस वीरान में

उगना कठिन था।

जिसने बचाया आज तक 

उस पेड़ को वैसी जगह

वह काम तो!  

सचमुच जटिल था! 

पर, वह 

खुश हुआ 

बैठकर उस 

छांव में मेरे लिए 

इतना बहुत था।


सायकिल पर बैठ 

दोनो लौट आए।

बैठ कर वह 

सायकिल के 

फ्रेम पर, 

देखकर वह 

प्रकृति के 

इस वेश पर,

बस खुश हुआ, 

मेरे लिए 

इतना, बहुत था।


बीस साल बाद का दृश्य: 


बैठ कर वह 

मोटरों के, काफिलों में,

पक्की सड़क जो तब 

नहीं थी;

बन गई है, आज अब।


तो पास उसके।

एक दिन वह 

फिर गया। 

उस जगह पर,

पर, मैं नहीं था।


मैं वहीं 

बन एक पौधा 

ग्रीष्म की तपती दुपहरी

मेड पर चुप चुप खड़ा था।


मैं 

झूमता, 

पुरवाईयों में 

तरल मन से इठल 

करता, झांकता, पर 

देखता था।


वह!  

खोजता है! आज

उस बहती नदी को!  

जो, बह चुकी, मरियल हुई,

सूखी पड़ी है।

रेत बन बन 

हवा के संग उड़ रही है।


वह खोजता है! 

उस पेड़ की, वह घनी छाया! 

जिस पेड़ के पत्ते सकल, 

अब झर चुके हैं, 

डालियां सूखी हुई हैं

कंकाल सी ही, हो गईं हैं।


वह खोजता है, 

तट नीर की

उस खुशनुमा सी 

जगह को!    

जो आज सचमुच, 

धुंवठी हुई, कुछ चिमनियों 

की राख से

सच 

प्रेत का डेरा बनी है! 


घूम कर वह वापसी में

हो गया सचमुच निराश! 

देखता एक बार मुझको  

मुस्कुराया, हंस पड़ा,

पास आया, छू मुझे

इक बार फिर वह 

खुश हुआ! 

वो खुश हुआ ? 


बस ! 

मेरे लिए इतना बहुत था।।


मेरे लिए, बदले हुए,

इस जन्म में

बस 

इतना बहुत था।

"लौट" 

आया था!  

वहीं वह! 

खोजता तो था “वही सब”! 

यह कम नहीं है! 

यह कम नहीं है।

जय प्रकाश मिश्र

मुझे आपके कॉमेंट्स का इंतजार हमेशा रहता है।




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