दान कर सर्वस्व अपना, छा गई, बाहों में सागर पा गई है
एक नदी थी, बहती हुई;
वह जिंदगी थी!
अपनी
नहीं!
गुजरी जहां
जिस मोड़ से,
आबो.. हवा बदलती हुई!
वह.. नदी थी बहती गई!
भाव: अच्छे लोगों का जीवन अपने लिए नहींलोगो के लिए होता है। जहां वो होंगे आस पास माहौल बदल ही जाता है।
पैदा हुई
पाषाण पर..
शीर्ष पर,
उस शिखर पर..
पर.. प्यास थी इस धरा पर
वह तत्परा थी.. सदा तत्पर,
नीचे.. ही नीचे...आगे बढ़ते
ले दुग्ध फेनिल.. उतर.. गई।
वह नदी.. थी.. बहती... गई।
भाव: सतजन कहीं भी पैदा हों, पर उनका लक्ष्य लोगों की सेवा, सहायता करना होता है। वह इसके लिए कष्ट भी नीचे भी अधम और निंदनीय लोगो में भी निवसते है। उनमें घमंड शून्य होता है।
वह.. जान थी, इस देश की
सम्मान.. थी, इस देश की
एक बालिका सी
नतखटी...
इस देश पर.. लुटती गई।
वह नदी थी.. बहती गई।
भाव: अच्छे लोगों में अभिमान नहीं होता, वे अति सामान्य आचरण नटखट से होते हैं। पर देश दुनियां के ली मित्र सहायक होते हैं।
ए..क दिन, वह जीवनी
बहती हुई इस धरा पर,
पालती जन, प्राण, पाथर
अंत अपना पा गई,
देखते ही देखते
इस धरा से लुप्त होती
बाहों में, सागर पा गई।
वह, खुश हुई,
दान कर,
सर्वस्व अपना, छा गई,
वह नदी थी बहती गई।
वह नदी थी बहती गई।।
भाव: हर अच्छे आदमी का अंत सुखमय ही होता है। वह चिर सुख अभिप्सित स्थिति प्राप्त करता है। विदा लेकर भी वे अपना सर्वस्व लोगो के लिए उनकी भलाई में छोड़ जाते हैं
शीर्षक: प्रेम और स्नेह
एक उपवन बहुत सुंदर
खिलखिलाता हंस रहा था,
पुष्प मीठे, सौरभ भरे,
चंहुओर
इसमें खिल रहे थे।
तितलियां रंगीन
उड़ उड़ बैठतीं थीं,
हवा के संग
पंखुरी का लय-विलय-लय
चल रहा था।
सोचता मैं भी खड़ा था,
एक कोने में वहां,
क्या हो रहा है देखता!
चुप चुप, मधुर संगीत!
उनका सुन रहा था।
भाव: संसार सुंदर है। इसे अनुभूति के स्तर पर लाना चाहिए। नैसर्गिकता का आनंद अच्छी सोच और सद्भावना की दृष्टि से ही मिलता है।
सौंदर्य लह लह लहकता था,
सौरभ बिखरता हवा में
कुछ कह रहा था।
संबंध क्या है?
पुष्प का इन तितलियों से!
रंग बिरंगी तितलियों के
रंग से,
इन रंग बिरंगे, पुष्पदल से।
मैं सोचता विस्मृत पड़ा था!
भाव: संसार में हर चीज और उसकी स्थिति आपस में जटिल रूप से संबद्ध हैं सभी का रूप, रंग, आकर, आदतें अपने लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए सबका सम्मान करना चाहिए।
क्यों मदिर सौरभ, यहां
इतना प्रचुर फैला हुआ है
क्या निमंत्रण प्यार का
प्रेम में बंध पातियो के
बीच में
लिखा गया है।
पढ़ रही हैं!
तितलियां! इस फूल में!
उस पुष्प पर
यूं बैठकर!
मैं सोचता हूं।
क्या बाध्यता है!
किसी... प्यास की!
यह... तितलियों की!
फूल से, दर... फूल पर
उड़ती फिरें... वो!
या लुटाना! आनंद है!
सौरभ सलिल का!
पुष्प का इस!
आज ही पहले प्रहर में,
सोचता हूं!
भाव: सारे पुष्प प्रातः ही खिलते हैं। और तितलियों का या मधुमक्खियों का कार्यभी प्रातः ही शुरू हो जाता है। हमारा भी हर कार्य विन विन से जुड़ा होना चाहिए। आपसी सद्भाव बड़ी चीज है। केवल अपने बारे में सोचना पशुता ही है।इससे बचना चाहिए।
आनंद सचमुच
स्राव मीठा मधुर है
उस कर्म का
प्रेम के संग,
लगन से,
जो किया गया।
तितलियां जब प्रेम में हो मगन
पूरी लगन से,
रस-पुष्प का एकत्र करतीं;
आनंद झरता
उर में उनके
उस समय ही;
देखतीं
जब झर रहा झरना
बराबर पुष्प का ।
भाव: तितलियों के लिए पुष्प का पराग जीवन का झरना है, उसको इकठ्ठा करने में वे आनंद का अनुभव करतीं हैं। आनंद कार्य की पूर्णता या फल या परिणाम मिलने में नहीं, वास्तविक आनंद तो परिश्रम से प्रयास करने प्रेम से काम करने में है।
देखता हूं खुश हैं दोनों,
एक मिलकर हो गए हैं,
लूटता कोई लुटाता,
प्यार में सब खो गए हैं।
कैसा उत्सव हो रहा है,
प्रकृति कितनी शांत है,
ठीक इसके बगल में
यह, खड़ा मानव क्लांत है।
भाव: प्रेम पुरस्कार या प्रतिदान नहीं मांगता। यह विन विन स्थिति है। दोनो खुश होते हैं। पुष्प की सार्थकता सौंदर्य और सौरभ बिखेरने में है तितलियों की पराग या सौरभ से मधु कण से मीठा मधु बनाने में है। दोनो कर्म में लगे है पूरी निष्ठ से और आनंद मगन हैं। जबकि मानव मात्र भविष्य की प्लानिग में वर्तमान भूला बैठा, क्लांत है।
अभिशप्त है,
यह सोच से, खोज से,
हर ओर से,
खड़ा है जिस जगह पर
उस जगह से महरूम है।
भाव: मनुष्य अपनी स्वार्थभरी सोच और वैसी ही मात्र स्वार्थी तकनीकों के कारण दुखी है। वह जहां वर्तमान में खड़ा है वहां का आनंद न लेकर अन्यत्र के बारे में भविष्य को लेके चिंतित है।
मानसिक है खेल इसका
मानसिक है प्राप्तियां,
मानसिक है रोग इसका
मानसिक सब व्याधियां।
भाव: आदमी अब भौतिक व्यवस्था से अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं, मन से विकल, व्यथित, बीमार हो रहा है।
जय प्रकाश मिश्र
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