जिंदगी भी एक लहर थी! सभी लहरों की तरह!

जिंदगी भी 

एक लहर थी! 

सभी लहरों की तरह! 

भागती रही, हमेशा,

अपनी धारों पे 

मौजों की तरह! 


कौन कहता है 

यह बहती रही, 

दौरे सफर

नायाब किनारों भीतर,

खून था, 

लाल, गर्म, भरा इसमें, 

उबलना आसां था,

तभी तो उफन के 

बहती रही है, मौकों पर।

भाव: जिंदगी रुकती नहीं लहरों सी आगे बढ़ती ही है, समय पर खुश होती, लोगो से मिल उत्साह में भरती मौजों में चलती है। यह हमेशा नियम कानून तोड़ अपनी स्वतंत्रता में रहना चाहती है।

द्वितीय सोपान: उम्मीद 

भरने... लगे हैं.... खेत यहां

कल की.. उम्मीदों.. से लदे, 

दाने फसलों से.. झांकें ऐसे

लगा दारिद्र्य के दिन दूर हुए। 

भाव:  हम उम्मीद में प्रसन्न और आनंदित होते हैं। जब दूर से अजान आती है या मंदिर की घंटी सुनाई पड़ती है हम स्वभाव से खुश हो ही जाते हैं।

तृतीय सोपान:  अति विश्वास

बादल में कोई!  कैसे 

छुप छुप के निकल सकता है,

वो भ्रम ही रहा होगा

कोई!  बादल में नहीं रहता है।


तभी!  कोई!  

चिल्लाता भागता आया! 

बोला!  वो वहीं 

आज भी छुपा बैठा है।

यह बात!  

दीगर थी! 

अब वह!  

वहां!  

नहीं रहता है।

भाव: पहले बहुत पहले हमे विश्वास था की ऊपर बादलों में हमारा भगवान, हमारा रखवाला रहता है, वहीं से देख देख वो हमारी जरूरतें पूरी करता रहता है। जैसे जैसे हम बड़े हुए यह अज्ञान दूर हुआ वहां कोई कैसे रह सकता है, और तब से उस परमात्मा ने अपनी रहने की जगह भी सचमुच बदल दी। क्योंकि बचपन में हम शुद्ध मन विचार के थे बड़े होकर हमारे कर्म देखकर वह दुखित रहता था। फिर भी अभी भी परेशानियों में हम ऊपर ही देखते हैं कहते है वो वहीं कहीं है।

चतुर्थ सोपान: 

बीते खयालों की कशिश में

डूब जाने के लिए,

बनकर तरल खुद जिस्म में

बहती रहीं वह रात भर।

मां थी वह! 


टूट ना जाए 

वो वहम!  

जिसे पाली हूं, 

तेरे बचपन से! 

गुजारिश रोज 

करती हूं "उनसे" 

बचा रह जाए, 

बस मेरा ये भरम, 

जाते जाते, तुम सबसे।

एक मां अपने बच्चे से न जाने कितनी उम्मीदें उसके बचपन में ही लगा लेती है। और अपने मरने तक उसी का कामना करती रहती है। वो चाहती है की उसके इस विश्वास को कभी धक्का न लगे। इसके लिए हम लोगो की सलामती खातिर भगवान से रोज प्राथना करती रहती है।

पंचम सोपान: आज की कविता

यह बातें मुझसे किसी ने बहुत पहले कही थी। और वही मैं आप से कह रहा हूं, समय हो तो ध्यान से पढ़ें नहीं मात्र सुनें। निश्चित यह कालरूढ रचना होनी चाहिए।

अपने पुत्र के बारे में बता रहे थे: 

वो भी, एक समय था!  
ये*, "जो" मैं कहता था  (मेरा छोटा सा बेटा)*
समझ नहीं पाता था।
करना कुछ था!  
कर कुछ जाता था

मैं हंस देता था, 
ध्यान नहीं देता था
अभी! छोटा है।
कहकर!   
चुपचाप प्यार से 
दुलरा देता था।

नाराज होने को 
कौन कहे!  
उसके फ्रेम में 
फिट होने की 
कोशिश करता था।

समय की बात है, 
मेरे अरमान पूरे हुए; 
लड़का जवान हुआ 
और हम बूढ़े हुए।

आज फिर हम दोनो ने 
बदल ली है 
अपनी जगह,
मैं और मेरी बातें 
अब उसके और 
उसके फ्रेम से 
लगभग अलग ही हुए।

वह अब 
अपने लोगो के साथ
वर्तमान परिदृश्य में जीता है।
मैं और मेरा, अपना मन 
अपने खुद के विचारों के 
फ्रेम से बाहर ही नहीं आता है।

आस पास के लोग 
समय-असमय झांक ही लेते हैं,
खिड़कियों से चुपके चुपके
आदत से मजबूर छुप छुप
के मजा लेते हैं।
वे, ये सब देख थोड़ा 
गहरे से मुस्कुरा भी लेते हैं।

वो झिझकता है, 
शर्माता है, छिपाता है 
मेरे हालात लोगो से,
कि उसके पिता 
अब वैसे 
पहले जैसे 
कालजयी नहीं रहे।
सोचता यही! 
मुझे किसी से भी
नहीं मिलाता है।

अब मैं 
अपनी वास्तविकता 
के साथ रहता हूं। (बिना किसी औपचारिकता के)
कभी, वह भी रहता था, 
इसी वास्तविकता के साथ 
मेरे साथ! तब,
जब वह बच्चा था।
 
पर मैं 
कभी, उसकी बातों, 
करतूतों से परेशान नहीं हुआ।
न हीं झुंझलाया 
बल्कि प्यार से ही
हमेशा सहलाया।

एक समय था 
मेरा यही बाबू, ऊंचा-नीचा 
इन्ही रास्तों का
आज, मेरी तरह,
समझ नहीं पाता था।
ऐसी जगहों पर 
मैं उसका हाथ पकड़ता, 
संभालता, कभी कभी,
गोद में उठाता था।

आज इंतजार करता हूं 
मैं भी... 
की कोई.. आए, हाथ पकड़े 
मैं थोड़ा... टहल आऊं, 
कभी.. तो
बाहर.. ऊंचे नीचे ।
कोई.. उंगली पकड़े!  
संभाले! 
थोड़ा..तो मुझे! 

मेरे बाप दादे 
भाग्यशाली थे, 
हम चार भाई, 
तीन बहन थे।

खाने पीने 
ओढने बिछाने की 
कमी चाहे रही हो
थामने को उनका हाथ 
हम कभी भी नहीं कम थे।

मुझे याद है 
उनके पास 
घर के दो चार
और अगल बगल के लोग 
घेरे रहते,
आपस में बातें करते 
हंसते ठिठोली होती
उनका दिमाग चलता 
और याददास्त चौड़ी होती।

आज घरों में बच्चे कम है, 
लोग जो है, मरे, मरे ज्यादा 
जिंदा कम हैं।
जिंदगी की जगह 
टी वी, फोन ने,
बच्चो की जगह 
पालतू जानवर और
खिलौनों ने निचोड़ ली है ।

अब मैं 
चारपाई के बिस्तर की 
सलवटें दिन भर  
रात अंधेरों में
उठ उठ, बार बार 
ठीक करता रहता हूं।
तुम मेरे बच्चों
नहीं जानते 
मैं अब अपना चेहरा 
समय से लड़ने के लिए
कितनी बार 
अकेले में मलता रहता हूं।

समय था 
देश के दुश्मनों से लड़ा,
देश में गद्दारों से लड़ा,
चोर चकारों से लड़ा
अब नहीं चाहता 
अपनों से लड़ूं! 
फिर अपने से लड़ूं,! 
कभी कभी तो
सच कहता हूं! 
लगता है 
अपने ही 
बुरे सपनो 
से भी
लड़ूं।

अब तो
तुम्हे लेकर, 
मुझे अपने भीतर, 
कदाचित डर लगता है! 
क्या होगा तुम्हारा! आगे! 
आदमी का, आदमी 
क्या नहीं होगा?  
आखिर अंतिम सहारा
लोगों का कौन होगा।

पैसा और समृद्धि 
सब चुपचाप 
साथ छोड़ देंगे 
तुम्हारा।
कानों को 
जिंदा आवाज चाहिए, 
मुर्दा स्पीकर नहीं, 
नहीं और फिर 
एक बार नहीं।

आंखों को देखने के लिए 
जिंदगी चाहिए, 
सुंदर अद्वितीय तस्वीरे नहीं! 
नहीं और फिर कहता हूं नहीं।

बोलने को 
बात करने को 
लोग चाहिए, सुविधाएं नहीं
हम बूढ़ों को, 
तोतली बोली चाहिए 
छूने को जिंदा लोग 
चिकनी दीवारें, 
मखमली गद्दे कुछ भी नहीं।
कुछ भी नहीं! 

यह सच है, 
हम भटक जाते हैं, 
पैरों से ही नहीं, 
बातों में, 
निगाहों से ही नहीं, 
तुमको सुनने, 
समझाने में, 
दिमाग से 
सोचने में ही नहीं, 
अपनी बात कहने में
निर्णय में।
सच सुनो! अब हम डरते है! 
अपनी बात तुमसे कहने में! 

जब 
देखते हैं 
तुम्हे, तुम्हारी पसंद, 
नापसंद, का अंदाज 
हम कुछ कुछ लगाते है।
क्या कहें 
कहां तक कहें, 
कहें न कहें! 
की कुछ सुनना न पड़े 
उल्टा हमें! 
बस वही रुक जाते हैं।

तुम्हारी क्षमताओं पर 
नाज था, है भी, 
पर संशय में रहता हूं
अपनी बात मनवाने में,
गिर न जाय मेरी कोई बात!  
बहुत सतर्क रहता हूं।
तुमसे कुछ भी 
कहने से पहले
अब मैं सौ नहीं 
हजार बार उसे गुनता हूं।
क्योंकि तेरी एक ना पर अब....

मैं भीतर से टूट जाऊंगा, 
बिखर जाऊंगा, 
तेरे ना कहने से पहले ही मैं
इस शहरा से, गुजर जाऊंगा।

जो तूं! 
अपने चलते चलते 
अंदाज में, हल्के हल्के! 
कुछ भी बोल देता है! 
डर मुझे लगता है, 
धीरे धीरे तेरी, 
इस आदत का, मैं भी कभी 
एक दिन शिकार होऊंगा।
उस दिन.....

टूट जाएगा वो वहम 
जो पाले हूं, तेरे बचपन से,
गुजारिश रोज करता हूं उनसे 
रह जाए बस मेरा भरम
अनहत इस जिंदगी में तुझसे।

कभी कभी उंगलियां, 
गदोरी मेरी ढूंढती हैं 
तेरे हाथों की छुअन
जब तूं डर के, 
किसी बिल्ली से 
पकड़ लेता था इन्हें 
कितना कसके।

भूल जाता हूं, 
दर, दीवार, दरवाजों,
दादख्वाहों को
गुम हो जाता हूं, 
अपने घुमड़ते 
विचारो की टूटती 
बनती अर्गलाओं में।
सोचता हूं 
किसी से, गल्ती से भी
कुछ भी न कहूं।
ये सारी बाते अपनी।
कोई मुझसे बात करे, 
तो करे।

तूं क्या जानेगा! 
अपनो बिन!  मेरे दिन!  कैसे गुजरे! 
देखता हूं, 
तूं अलग! 
तेरे बच्चे अलग! 
तेरी भार्या भी कहीं और 
और तूं 
कहीं और।

सब काम करते है,
तूं कितना खाली होगा, 
अंदर से 
ये मैं महसूस करता हूं
बहुत भीतर से
जय प्रकाश मिश्र



Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता