तस्वीर पूरी मुझसे, बनती ही नहीं।
भाव भूमि: किसी भी चीज पर लिखने से पहले उस व्यक्ति, घटना क्रम, अथवा स्थान विशेष का वास्तविक मानसिक चित्र, संपूर्णता में बनाना पड़ता है। तभी हम उस पर कुछ लिख पाते हैं। और यदि यह नहीं हो पाता तो वर्णन में जीवंतता नहीं होगी। इसके लिए आपकी दृष्टि पैनी और ग्राह्यता संपूर्णता में तटस्थ रहते हुए आत्मसात करनी होगी। इसी पर कुछ लाइने आप के आनंद हेतु प्रस्तुत हैं।
कैसे.. लिखूं!
मैं.. गीत, तुम पर..,
हे सखी! तुम ही बताओ?
सोचता हूं!
भावमय.. तस्वीर तेरी एक सुंदर
चित्र.. तेरा..,
वास्तविक.. दिपता हुआ
पहले... बना लूं
मानस पटल, मन.. पटल.. पर,
देखकर....!
उसको.. लिखूं, मैं.. गीत तुझपर।
इसके लिए, भी.. कम.. से कम...
स्याह.. सी, एक.. रेख,
मुझको.. चाहिए
बहुत.. पतली..,
श्री गणेश तो मैं कर.. सकूं..
आभा.. भरे, तेरे... दिप.. दिपाते
मुख..कमल के चित्र का।
रखूं! कहां...
इस श्यामता की रेख को,
कोशिशें कर देख लीं
तेरी दीपती वनराजि पर
कहीं भी, इस श्यामता... का
विंदु.., दिख..ता, ही नहीं।
कैसे.. बनाऊं!
नयन.. तेरे, ढुलकते,
सुदीर्घ सुंदर,
कोवको के
खींच लेते सार सबका,
सत्व का,
जिस तरफ वे.. पलट कर थे, देखते।
पलक तेरी सलेटी..,
भ्रूभंग तेरी नुकीली..
पग.. तेरे, कदली सरीखे
साफ उजले...
नख.. चमकते, कटि सिमटती,
झुकती.. हुई, कंधे.. भरे!
वे..।
नासिका... से
कर्ण.. तक की दूरियां,
मै चुन.. सकूं, आराम से,
वह दृष्टि सम्यक...
विराग... की तो चाहिए ही।
राग का इस क्या करूं,
एक क्षण ना छोड़ता।
वो... हवाओं में, खिंच.. रही
डालियों सी, झुक रही,
जुल्फ.. तेरी,
लटकती, सिंहली.. पीछे मुड़ी
सुनहरी.. उड़ती हुई, कैसे बनाऊं।
चित्त.. मेरा साथ इनके, उड़.. रहा।
उंगलियां, पतली, सुरीली,
नख कांति, नीली...
सौम्यता.. वह दृष्टि.. की,
यष्टि.. कैसी, हंसिनी... सी,
चितवन.. तेरी विस्मृति.. भरी सी
बोलती, कुछ कह रही,
शांति में भी गूंजती
हिलदुल समेटे.. अंग की
भार.. से खुद, झुक.. रही,
आभार, कह
चुप चुप खड़ी.., आनंद सरिता बह रही
तस्वीर मैं कैसे बनाऊं!
मैं हूँ कहां, खुद खोजता..चुप हूं खड़ा।
बना लूं!
तब तो लिखूं, हर बात तेरी..
कोशिशें कर देख ली,
तस्वीर तेरी..., सच में, पूरी..
मुझसे, बनती ही नहीं।
तस्वीर पूरी
मुझसे, बनती ही नहीं।
जय प्रकाश मिश्र
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