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वह रूपसी थी।

भाव: जीवन में सुख और आनंद अलग अलग चीजें हैं, एक में हम अपने स्वार्थ के लिए संपत्ति संचय कर सुविधाओं में वृद्धि से सुख पाते है, दूसरे के लिए हम अपनी समृद्धि या सुविधाएं खुश हो कर दूसरों को निस्वार्थ देते हैं और उसका जो बायप्रोडक्ट होता है आनंद, स्वतः अभिप्रेरणा से हमें प्राप्त होता है। सुख दूसरे की सहायता लेकर मिलता है जबकि आनंद दूसरे की निस्वार्थ सेवा करके मिलता है। इसी पर कुछ लाइने..। समृद्धि क्या है?  अंक है, माप है, सीमित सदा है, यह  सांसारिक सुख से बढ़ कर  कुछ भी नहीं है। परिमिति लिए, संग घूमती है, मृतप्राय है, कुछ ही दिनों की बात है। आनंद इससे दूर है,  थोड़ा भी है तो अपरिमित है। आनंद! सोता*... प्रेम का है नित्य ही यह सरसता है। जितना उलीचो उपजता है। (सोता*... स्रोत)  भाव: प्रकृति दर्शन आनंद का स्रोत है। इसके आगे हम स्वयं को विस्मृत कर समाधिस्थ हो जाते हैं। पहाड़, हरित-वनराजि, निरत प्रवहित जलश्रोत की शोभा, तुषार मंडित बर्फीली चोटिया अनुपमेय होती है। इसी पर कुछ लाइने आपके लिए। एक तलहटी थी, दूर तक फैली हुई, उन… पर्वतों के बीच में,  ऊपर, शिखर पर..  हिम...

रंग हैं, उमंग हैं ये, जिंदगी के...।

भाव: जीवन एक अबूझी पहेली, सारे दर्शन पढ़ डाले, धर्मो को भी पढ़ा, अंतर्दृष्टि, अनुमान, तर्क सब एक संशय की दीवार मिली। एक से एक ऊंचे, ऊंचे आवाज में आपस में ललकारते, चिल्लाते अपनी ताल ठोकते, दावे! सब संशय, और अटकलों पर टिके हैं, आखिर, में सोचता हूँ जीवन को सुंदर, एक उपयोगी चादर सी खुद बुनु  और बनाऊं ततः रख जाऊं जो शायद किसी के कुछ काम ही जाए। इसी पर कुछ लाइने आप के आनंद हेतु प्रेषित हैं। सोचता हूँ... बनाऊं मैं एक.., चादर... जिंदगी.. की,  सबसे... सुंदर आज तक... की। भाव: सभी को अपना जीवन अनुकरणीय, सुंदर और बिना पछतावे वाला बनाना चाहिए। इसलिए..,  मैं.. कर रहा हूँ,  इकठ्ठा, आज.. ही, से..  तंतु... सारे.., मर्म.. सारे..  जिंदगी के, एक... संग। भाव: इसके लिए हमे अपनी दृष्टि व्यापक और संवेदना का विस्तार करना होगा। जीवन तत्व, सद्ज्ञान, विद्या, स्नेह, प्रेम, क्षमा और करुणा आदि को जीवन में लाना होगा।  रख रहा हूं,  संजोकर,  इन सभी को,  अपने, भीतर... बड़े ही ताकीद.. से, कि,  बुन सकूं,  सूंकूं... के पल... साथ.. इनके,  और थोड़ी......

वह! काम वाली लड़की!

भावभूमि: जीवन में अनगिनत किरदार अनेक रूपों में मिलते हैं। कुछ ऊपर और कुछ निम्न लेवल के होते हैं। सब महत्व पूर्ण हैं पर कुछ लोगों के कुशल क्षेम के प्रति हम आश्वस्त रहते हैं लेकिन कुछ किरदार ऐसे भी होते हैं जो ज्यादा सहज, सरल और एक चुप्पी लिए हमारे जीवन में अपनी भूमिका निभाते हैं। जीवन के नितांत निजी सुख दुख के हिस्से तो वो बनते हैं पर उन्हें गहराई से हम जीवन में नहीं लेते। प्रायः वे, कुछ ही दिनों में हमे भूल जाते हैं। समाज में सभी सामान्यतः एक सी ही, जरूरत रखते हैं, ये कम आमदनी वाले लोग, कैसे रहते होंगे हमारे घरों से जाने के बाद, अपने बच्चों और परिवार में, इस पर कभी कोई सोचता ही नहीं। आपने पारिश्रमिक दिया आपका दायित्व खत्म। उनकी भी जिंदगी है, शौक हैं, महत्वाकांक्षाएं हैं इस पर प्रबुद्ध वर्ग और मध्यम वर्ग भी चुप्पी साध लेता है। आज की लाइने उन्हें समर्पित हैं आप पढ़ें और आनंद लें । एक...  शुमार...,  चेहरे... पर, लिए,  हल्की, चमक... से, दीप..ती,  एक्सपायरी,  किसी..  क्रीम.. की,  परत.. हो खुद, झांकती..,  अनयूजुअल.., आभा.. लिए,  मुंह अंधेरे.. में, ...

अपनी सुना, मेरी भी सुन, गुजर जाए, इसी में दिन

भाव भूमि: अपने यहां जीवन शुरू ही घर के प्रति, अपनो के प्रति, प्रतिद्वंदी के प्रति, समाज, धर्म, जाति, और वर्ग के प्रति एक दायित्व लेकर पैदा होता है, उसे पूरा करता है और उसे ही बच्चों को सौंप कर विदा लेता है। उसकी अपनी दुनियां बन ही नहीं पाती, मस्तिष्क पर एक बोझ बचपन में लद जाता है उससे उबरे और स्वस्थ जीवन जिए आसान नहीं। अपनी बात खुलकर किससे कहे, जो नितांत अपना हो, मिलता ही नहीं, हर ओर आवरण में लोग हैं। अंत में शायद इसीलिए हम प्रकृति को अपना साथी मान उससे मन की बातें करते हैं और वह हमें प्रियतर लगती है। वहां हम शांति पाते हैं इसी पर कुछ लाइने आपके आनंद हेतु प्रस्तुत हैं। इन, हवाओं.. से, क्या कहूं!  तकलीफें अपनी...,  वो... भी, कैसे..?  चुप.. चुप.., हैं सब,  नजदीक मेरे, एक क्षण  आतीं नहीं हैं। जरा भी, थमती... नहीं हैं,  सहमती... हैं, देख.. मुझको, रुक... गई हैं, दूर... कितनी काठ... सी, हृदय... लेकर उम्मीद.. इनसे…, क्या, करूं?  सुरसुराती.. सरसराती..  भागती.... हैं चोरनी सी... पेड़ों के.. ऊपर...!  एक क्षण.. को दीखती हैं, रुकती... ही नहीं हैं।  ...
भाव: हम सभी के चेहरे समय की छाप को अपने ऊपर, बहुत सारी आड़ी तिरछी रेखाओं के माध्यम से संजोते अपने कर्मों के अनुसार, आकृति बदलते रहते हैं। यह काम स्वतः समय करता रहता है। शुरू में हल्की बाद में गहरी होती ये रेखाएं जीवन का प्रतिबिंब ही होती हैं। इन्हीं पर कुछ लाइने पढ़ें।  कोई.., लिख.. जाता है, कब.., लिख.. जाता है, चेहरों.. पर,  इन आड़ी.., तिरछी..,  हल्की गहरी,  रेखाओं को,  उम्र के संग संग, मेरे अपने चाहत के रेशों में रंग कर वलय बनाता, चिंताओं की,  दुख सुख सबके,  सबके.... मुख पर  बिना.. बताए, रख… जाता है। कोई.., लिख.. जाता है,  कब.., लिख.. जाता है। भाव : संपूर्ण संसार के प्राणियों की आकृति समय के साथ स्वतः बदलती रहती है और वास्तविक जीवन की छाया इस पर देखी जा सकती है। एक कहानी,  मेरी  अपनी, याद… मुझे है,  औरों.. से..  मतलब.. ही क्या? खालिस अपनी है। थाह उसे, कैसे लग जाती,  मेरे मन की.. मेरे विचार की डलिया को  सच में  वह! कैसे, बिना बताए ,  छू.... जाता है।  कोई.., लिख.. जाता है,  कब.., लिख.. जाता है...
चल छोड़! अब, यह, रूप का..,  वैभव... सरोवर, फनफ़नाती, यौवनों की..,  नदी.. बहती,  पार.. कर!  अंग.. रस की मधुरता,  संस्पर्शता, सौष्ठव सभी का,  भूल जा.. लहर.. की यह उछल सारी त्याग कर..!  अब!  आ नहा..! प्रिय  साथ.. मेरे झील.. के इस थिरकते,  थिरते हुए, स्थिर से  जल... में स्फटिक मणि से भी सुंदर,  परम शीतल, शांतिमय तरल है, सरल है यह स्वास्थ्य प्रद, संतोष प्रद, प्रशांति ही है। छोड़ यह दुनियां  भ्रमों... की,  रंग है,  बिखरे हुए, हर किनारों पर!  बदलते, बदरूप होते,  देख कैसे!  छोड़ अब यह रास्ता,  अंदर को चल!  कोई जोहता है बाट तेरी युगों से चुप चुप खड़ा हैं। मैं.... कैसे जाऊं,  अपने.. भीतर... सीढ़ियां.., दिखती नहीं.. हैं, अंधेरा... है, विकट.. सच.. में,  सूझता, कुछ भी...  नहीं है। कोई  कह.. रहा था,  पकड़.. लो, एक धार को  तुम..  जो भी पाओ..  पास.. में, पकड़े... रहो  बस, छोड़ना... मत!  शब्द*... हो, कोई वाक्य*...  हो। वह.., रास्ता...,  बन जाएगा.....

तस्वीर पूरी मुझसे, बनती ही नहीं।

भाव भूमि: किसी भी चीज पर लिखने से पहले उस व्यक्ति, घटना क्रम, अथवा स्थान विशेष का वास्तविक मानसिक चित्र, संपूर्णता में बनाना पड़ता है। तभी हम उस पर कुछ लिख पाते हैं। और यदि यह नहीं हो पाता तो वर्णन में जीवंतता नहीं होगी। इसके लिए आपकी दृष्टि पैनी और ग्राह्यता संपूर्णता में तटस्थ रहते हुए आत्मसात करनी होगी। इसी पर कुछ लाइने आप के आनंद हेतु प्रस्तुत हैं। कैसे.. लिखूं!  मैं.. गीत, तुम पर..,  हे सखी! तुम ही बताओ?  सोचता हूं!  भावमय..  तस्वीर तेरी एक सुंदर चित्र.. तेरा.., वास्तविक.. दिपता हुआ पहले... बना लूं मानस पटल, मन.. पटल.. पर,  देखकर....!  उसको.. लिखूं, मैं.. गीत तुझपर। इसके लिए, भी.. कम.. से कम...  स्याह.. सी, एक.. रेख,  मुझको.. चाहिए बहुत.. पतली..,  श्री गणेश तो मैं कर.. सकूं..  आभा.. भरे, तेरे...  दिप.. दिपाते  मुख..कमल के चित्र का। रखूं! कहां... इस श्यामता की रेख को,  कोशिशें कर देख लीं  तेरी दीपती वनराजि पर  कहीं भी, इस श्यामता... का विंदु.., दिख..ता,  ही नहीं। कैसे.. बनाऊं!  नयन.. तेरे, ढुलक...