अपनी सुना, मेरी भी सुन, गुजर जाए, इसी में दिन
भाव भूमि: अपने यहां जीवन शुरू ही घर के प्रति, अपनो के प्रति, प्रतिद्वंदी के प्रति, समाज, धर्म, जाति, और वर्ग के प्रति एक दायित्व लेकर पैदा होता है, उसे पूरा करता है और उसे ही बच्चों को सौंप कर विदा लेता है। उसकी अपनी दुनियां बन ही नहीं पाती, मस्तिष्क पर एक बोझ बचपन में लद जाता है उससे उबरे और स्वस्थ जीवन जिए आसान नहीं। अपनी बात खुलकर किससे कहे, जो नितांत अपना हो, मिलता ही नहीं, हर ओर आवरण में लोग हैं। अंत में शायद इसीलिए हम प्रकृति को अपना साथी मान उससे मन की बातें करते हैं और वह हमें प्रियतर लगती है। वहां हम शांति पाते हैं इसी पर कुछ लाइने आपके आनंद हेतु प्रस्तुत हैं।
इन, हवाओं.. से, क्या कहूं!
तकलीफें अपनी...,
वो... भी, कैसे..?
चुप.. चुप.., हैं सब,
नजदीक मेरे, एक क्षण
आतीं नहीं हैं।
जरा भी, थमती... नहीं हैं,
सहमती... हैं, देख.. मुझको,
रुक... गई हैं, दूर... कितनी
काठ... सी, हृदय... लेकर
उम्मीद.. इनसे…, क्या, करूं?
सुरसुराती.. सरसराती..
भागती.... हैं
चोरनी सी... पेड़ों के.. ऊपर...!
एक क्षण.. को दीखती हैं,
रुकती... ही नहीं हैं।
सोचता.. हूँ, बात... कर लूं,
कभी इनसे.. अरे! अपनी...
संदेश दे… दूं, हाल कह दूं..,
तुम... तलक.. ।
सुनाएं, ये.. वहां तुमको...,
आवाज मेरी...
पर कहां...?
नीचे...हैं. आतीं!
इस बाल्कनी पर
डर के, मारे..., जाने.. किससे..
गुजरतीं हैं, दूर... से,
उम्मीद इनसे क्या करूं।
फिर भी...
मेरा मन..., भागता...है,
पीछे..इनके, दौड़ता है, ठीक वैसे,
आज भी…
सोचता... है पकड़ लूं,
इन्हें मुट्ठियों... में..
पर सच है ये..
ये भाग जातीं, फुर्र से,
आज भी, कोमल.. हरी,
उन्हीं... पत्तियों के, बीच.. से,
उम्मीद इनसे क्या रखूं।
छोड़.. सारी बात,
चल, आ.. बैठ..., मेरे साथ..
थोड़ी... देर, को..,
अपनी सुना.., मेरी भी सुन..
गुजर... जाए, इसी... में दिन...
पर... एक, पक्की.. बात यारा..
सच है ये… जिंदगी भर,
खड़े... थे, पहरे...पे! हम तुम...,
हाथ बांधे..., दम को साधे
और क्या थी
जिंदगी ये तुम ही बताओ?
दायित्व ले पैदा हुए थे,
दायित्व को ढोते रहे,
दायित्व देकर जा... रहे हैं
जिंदगी थी और क्या? तुम ही बताओ!
जय प्रकाश मिश्र
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