भाव: हम सभी के चेहरे समय की छाप को अपने ऊपर, बहुत सारी आड़ी तिरछी रेखाओं के माध्यम से संजोते अपने कर्मों के अनुसार, आकृति बदलते रहते हैं। यह काम स्वतः समय करता रहता है। शुरू में हल्की बाद में गहरी होती ये रेखाएं जीवन का प्रतिबिंब ही होती हैं। इन्हीं पर कुछ लाइने पढ़ें। 

कोई.., लिख.. जाता है,

कब.., लिख.. जाता है,

चेहरों.. पर, 

इन आड़ी.., तिरछी.., 

हल्की गहरी, रेखाओं को, 

उम्र के संग संग, मेरे अपने

चाहत के रेशों में रंग कर

वलय बनाता, चिंताओं की, 

दुख सुख सबके, 

सबके.... मुख पर 

बिना.. बताए, रख… जाता है।

कोई.., लिख.. जाता है, 

कब.., लिख.. जाता है।

भाव: संपूर्ण संसार के प्राणियों की आकृति समय के साथ स्वतः बदलती रहती है और वास्तविक जीवन की छाया इस पर देखी जा सकती है।

एक कहानी, मेरी अपनी,

याद… मुझे है, 

औरों.. से.. 

मतलब.. ही क्या? खालिस अपनी है।

थाह उसे, कैसे लग जाती, 

मेरे मन की..

मेरे विचार की डलिया को 

सच में 

वह! कैसे, बिना बताए , 

छू.... जाता है। 

कोई.., लिख.. जाता है, 

कब.., लिख.. जाता है।

बिना बताए मुझको 

मेरे ही, मुख पर, लिख जाता है।

भाव: हमारे आंतरिक विचारों और भावनाओं के अनुसार हमारे जीवन के हर पक्ष को समाविष्ट कर हमे बिना बताए ही वह नियति इसे हमारे चेहरों पर शब्दसह अंकित कर देती है।

रेखाओं.. के अंतःपट में 

लिपट जीवनी, इतनी सुंदर..

मुख.. पर कैसे? छप.. जाती रे ! 

सोच.. रहा हूं! बैठ सबेरे! 

कलाकार, सुंदर! होगा वो! 

प्यारा होगा, रे.... ! 

अकन रहा हूँ, 

बचपन से मैं, उसकी ही तो

कृतियां सच्ची, सुंदर अच्छी

देख रहा हूँ।


परिवर्तन.. 

देखा है कुछ में,

समय सिला की धार पे चढ़ के

चटक हुए कुछ, कुछ धूमिल हैं

स्थिर भी कुछ, गायब भी कुछ।


रेखाएं चुप चुप बैठी थीं

राह जोहते, आंखे मीँचे, 

कौन थे वे.., 

मत पूछो मुझसे..

शांत, विषय रस फीके थे वे 

बस…

स्थिर थे, 

चाल चलन में।

मौन खड़ा खुद देखा करता

पद.. तल उनके, पद.. तल उनके।

कलाकार रेखाओं का 

निष्तब्ध खड़ा था, शब्द नहीं थे

रेखाएं बौनी थीं उसकी

सामने उनके, सामने उनके।


जय प्रकाश मिश्र




ढूंढ रहा हूँ कब से उसको 

नहीं पता, कब आता है वो 

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