वह रूपसी थी।
भाव: जीवन में सुख और आनंद अलग अलग चीजें हैं, एक में हम अपने स्वार्थ के लिए संपत्ति संचय कर सुविधाओं में वृद्धि से सुख पाते है, दूसरे के लिए हम अपनी समृद्धि या सुविधाएं खुश हो कर दूसरों को निस्वार्थ देते हैं और उसका जो बायप्रोडक्ट होता है आनंद, स्वतः अभिप्रेरणा से हमें प्राप्त होता है। सुख दूसरे की सहायता लेकर मिलता है जबकि आनंद दूसरे की निस्वार्थ सेवा करके मिलता है। इसी पर कुछ लाइने..।
समृद्धि क्या है?
अंक है, माप है, सीमित सदा है,
यह सांसारिक सुख से बढ़ कर
कुछ भी नहीं है।
परिमिति लिए, संग घूमती है,
मृतप्राय है, कुछ ही दिनों की बात है।
आनंद इससे दूर है,
थोड़ा भी है तो अपरिमित है।
आनंद! सोता*... प्रेम का है
नित्य ही यह सरसता है।
जितना उलीचो उपजता है।
(सोता*... स्रोत)
भाव: प्रकृति दर्शन आनंद का स्रोत है। इसके आगे हम स्वयं को विस्मृत कर समाधिस्थ हो जाते हैं। पहाड़, हरित-वनराजि, निरत प्रवहित जलश्रोत की शोभा, तुषार मंडित बर्फीली चोटिया अनुपमेय होती है। इसी पर कुछ लाइने आपके लिए।
एक तलहटी थी, दूर तक फैली हुई,
उन… पर्वतों के बीच में,
ऊपर, शिखर पर..
हिम धवल, आभा विमल..
ले… दीखती थी, दूर से..।
शांत.., उज्ज्वल.. मुख लिए
वर्ष…. भर! हां वर्षभर,
चमचम चमकता
दीप्तिमय….
एक श्रृंग.. ऊपर शोभता.. था,
सूर्य की किरणों के संग संग
रंग.. अपना बदलता था।
घाटियों में पुष्प थे,
कलियां मुरल.. थीं,
मुखर.. थीं,
नतमुखी, राजस.. सकल था
वह! चमन.. था,
सच! कहूं तो चमन था।
दैवीय सुंदरता लिए।
अभिजात वर्णी, वर्ण के..
नव, पल्लवों में, लुकछिपे
हिल दुलकते,
नवपुष्प थे.।
सौरभ लिए, अंबार भर! भर!
रह! रह! सिहरते, वाष्प से..
दे गंध,
उड़ते बादलों में.. मिल रहे थे।
चांद, तारों संग जैसे
झांकता हो नभ.. पटल से
बीच घर आंगन में जैसे।
सबसे.. नीचे,
एक झील.. थी..
नीलिमा.. का खेस.. ओढ़े
शांत, निर्मल, सतत कल.. कल..
”मौन का आवास” जैसे.।
दूर तक प्राचीर भरकर,
पत्थरों के बीच कोई रख गया हो
शब्द से निःशब्द मुझको कर गया हो।
बादल बरस विश्राम पाते
झील पर इस, उच्चस्थ थी यह
बहुत छोटी, हिम कणों के बीच में।
एक नदी
सतधार... मंडित..
अपने.. बनाए पाट में
मुड़ती.. मुकरती, पत्थरों के बीच
उफनती, नागिन हो कोई..
नृत्य... करती,
चंद्रिका.. का रूप लेकर
बह.. रही थी,
वह.. रूपसी थी।
सच कहूं यह रूपसी.. थी।
जय प्रकाश मिश्र
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