वह! काम वाली लड़की!

भावभूमि: जीवन में अनगिनत किरदार अनेक रूपों में मिलते हैं। कुछ ऊपर और कुछ निम्न लेवल के होते हैं। सब महत्व पूर्ण हैं पर कुछ लोगों के कुशल क्षेम के प्रति हम आश्वस्त रहते हैं लेकिन कुछ किरदार ऐसे भी होते हैं जो ज्यादा सहज, सरल और एक चुप्पी लिए हमारे जीवन में अपनी भूमिका निभाते हैं। जीवन के नितांत निजी सुख दुख के हिस्से तो वो बनते हैं पर उन्हें गहराई से हम जीवन में नहीं लेते। प्रायः वे, कुछ ही दिनों में हमे भूल जाते हैं। समाज में सभी सामान्यतः एक सी ही, जरूरत रखते हैं, ये कम आमदनी वाले लोग, कैसे रहते होंगे हमारे घरों से जाने के बाद, अपने बच्चों और परिवार में, इस पर कभी कोई सोचता ही नहीं। आपने पारिश्रमिक दिया आपका दायित्व खत्म। उनकी भी जिंदगी है, शौक हैं, महत्वाकांक्षाएं हैं इस पर प्रबुद्ध वर्ग और मध्यम वर्ग भी चुप्पी साध लेता है। आज की लाइने उन्हें समर्पित हैं आप पढ़ें और आनंद लें

एक... 

शुमार..., 

चेहरे... पर, लिए, 

हल्की, चमक... से, दीप..ती, 

एक्सपायरी,  किसी.. 

क्रीम.. की, 

परत.. हो खुद, झांकती.., 

अनयूजुअल.., आभा.. लिए, 

मुंह अंधेरे.. में, पुती..सी।


परवरिश... में 

कमी.. थोड़ी... रह गई हो,

तदनुरूपा..

दुबली... पतली..,

आप.. में, शर्माती... सी

लजाती.. वह, 

सड़क पर, बिल्कुल किनारे

रेले... के संग, अल.. सुबह,

पाली.. में पहली..., काम पर..

प्रिय! चल चुकी थी।


भीड़... में, 

स्कूल जाते, बालकों के, बीच... ही,

मस्तियां.. करते, सबों.. में, 

घिरी..., वह 

जल्दी.. में कुछ, पग.. डालती..

अंतर्मुखी.., 

सहमी... हुई सी,

किनारे... पर, 

खिलखिलाते फूलों में, 

वासी... सी,  कुछ...

दबती.. हुई, अंदर.. कहीं से,

पीठ.. पर लादे हुए, बस्तों.. के पीछे

हाथ.. खाली, दिमाग... खाली,

कुछ.. सोचती.. चलती हुई, वो...

अलग थी।


विद्यार्थियों की चमक से, 

पुलक से, गहरे कही, 

कभी, खुश.. लगी... !

कभी..., 

चिंतित..सी... लगी।


नायिका, मेरे काव्य की, 

जीवन कलश की, धारिका...

तो.. 

वही.... थी..।


पर अलग ! 

वह सबसे थी, स्मार्ट थी,

चर्बी चढ़ी हो, अंग पर, बेनाप की

रत्ती भर नहीं, बिल्कुल नहीं।


स्कूल जाते, 

साथ.. के विद्यार्थियों से

उम्र में थोड़ी, अधिक.. थी,

चाल.. में, अलस हल्की, 

पर साफ... सुथरी, 

देखती सब चकित हो! 

विभ्रमी थी। 

दृष्टि उसकी यष्टि उसकी 

हंसिनी सी..लग रही थी।


विचरती चहुंओर.., 

सजगी..

कुछ ठगी.. सी,  

कुछ बनी.. सी, 

लालिमा मुंह पर नदारद

लड़की थी, वो

मात्र तेरह साल की।

अनजान मुझसे.. उस रास्ते पर

आगे बढ़ती

देखती, नव उदित होते 

चंद्रमा सा

रूप... सबका, उत्साह से 

कुछ इस तरह थी।


थोड़ा झुकी आंखे लिए,

कटकर सभी की दृष्टि से

कातर थोड़ी थी, 

पहने हुए निज वस्त्र को 

कनखियो

से देखती थी।

क्या?  देखता है उसे कोई!  

आंख भर 

इससे... सजग थी...।


आंख.., भर... आई, मेरी, 

उसे देख कर, पहचान कर! 

मोड पर

अपने ही घर के, अरे!  यह... तो, 

बेटी... थी

मेरे ही अपने, कामवाली, के तन की।

जय प्रकाश मिश्र

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