अजीब सा स्टेज है, निराला है अपने में।
भाव: यह जीवन और यह दुनियां दोनों को जब गहराई से देखता हूँ तो अपने पर आश्चर्य होता है कैसे निराले स्टेज पर मैं खड़ा हूं, जिस पर आज जघन्य अपराध होते हुए, सब वहीं खड़े देखते रहते हैं बिना प्रतिक्रिया दिए। जैसे वे नाटक में आपने हिस्से का अभिनय करने मात्र को वहां अधिकृत हैं।
अजीब सा स्टेज है, यारों !
दुनियां का,
निराला है, अपने में, पूछो... कैसे ?
बांध लेता है, मुझे,
क्या अपने में?
इन बदलते हालातों में?
नहीं!
आप सभी सा ही, इन चुपचाप खड़े
मूर्तिवत हुए,
सामने घृणित अपराध घटित होते,
मूक देखने... वालों में।
भाव: आज सोचता हूं यह ऐसा तो नहीं था अभी चालीस, पचास साल पहले जब हम यंग होते थे किस तरह अन्यायी और अत्याचारी के खिलाफ जान की बाज़ी लगा खड़े हो जाते थे। आज भी मन तो वही है पर अपना निर्दिष्ट अभिनय हम पूर्ण कर अब दूसरे फेज में आ चुके हैं।
आज भी, बंध जाता हूँ, बिल्कुल वैसे
पहले जैसे
था कभी, सत्तर साल पहले,
जब कि पता है मुझे,
खेल चुका हूं, पार्ट अपना,
पूरा, बहुत अच्छे से बहुत पहले।
भाव: आज भी लोग शायद हम लोगों से वैसी ही उम्मीदें पाले हैं ऐसा भी लगता है। इस दुनियावी नाटक में आज भी स्टेज पर खड़ा मैं, अपने हिस्से को लेकर असमंजस में पड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ हूं।
यार! ये अजीब सा स्टेज है,
निराला है, अपने में, पर लोग हैं, कि
किरदार से क्या चाहते हैं,
पता ही नहीं है उनको..!
बंधे हैं आज भी मुझसे, बिल्कुल वैसे
बंधे से सालों पहले, जवानी में जैसे।
क्या कहूं उनको, खुद को
अजीब सा स्टेज है, निराला है अपने में।
भाव: अनेकों बार मन को समझाता हूँ, आप का रोल अब समाप्त हो चुका है फिर भी पता नहीं कैसा यह स्टेज है फिर फिर अजीब सी उलझन में डाल देता है भाव व भावनाएं रज्जु सी बांध लेती हैं और अपने कौतुक में अनचाहे समां लेती हैं।
हर बार उलझ जाता हूँ, बह जाता हूं
भावनाओं में लिपट,
लिथड़ जाता हूँ इन्हीं में,
समेटता हूँ रयबार,
हर बार, जाने न कितनी बार से
अपनी पूरी सोच और समझ से,
पर कैसे है,
ये रंग, ये फुदक, ये तेजी, ये चिपक
खींच लेती है मुझे, अनजाने ही, बरबस
मैं सर्प सा अभिमंत्रित हो जाता हूं।
पता ही नहीं चलता,
कैसे मैं
बैठकर, आश्वस्त हो
उसी तरह एक बार फिर
कैनवस रंगने लगता हूँ दिल से..।
रंगता.. था जैसे सालों साल.. पहले
अजीब सा स्टेज है, निराला है अपने में।
भाव: अपनी उम्र और स्थिति देख सब ज्ञान है अब अपने को, इच्छाओं और कर्म को समेटना है और वास्तविकता परम सत्य सभी लोग अपने लिए समान हैं, रंग, जाति, धर्म, धन, कुलीनता कुछ नहीं हम इनसे ऊपर अब पारगमन की तैयारी वाले क्रम में हैं अब कोई दोस्त और दुश्मन किस बात का जिसको लेकर मन और विचार, सिद्धांत बनाए वह मिथ्या जस्ट होने को है आंख खुल जानी चाहिए पर... कहूं नशेड़ी सा कैसे कुछ कर भी नहीं सकता पर मन से... वहीं आ जाता हूं। निराला है जगत और यह खेल का स्टेज।
जानता हूं सब, ऐसी बात नहीं
समय अब फैलाने का नहीं
विचारकर, सहज हो
अच्छे से हर कुछ
समेट, रखने और अलविदा कहने का है
जो दिन हों बचे, प्यार से रहने का है।
कोई नहीं...
अपना, न पड़ोसी, न दुश्मन
कम से कम अब समझने का है।
बात कैनवस पर रंगे
चित्रों सी
बनने और मिटने सी थी..
पुतले को पुतला समझने की थी...
अपनी और सबकी सच्चाई
अच्छे से समझने की थी..
पर कैसे कहूं! इसकी जादूगरी!
लुढ़क जाता हूँ इसी में
यार! ये अजीब सा स्टेज है,
निराला है अपने में।
जय प्रकाश मिश्र
प्रकृति के साथ जीवन को गतिमान करके ही जीवन की वास्तविकता से परिचित हुआ जाना चाहिए ऐसा मेरा मानना है ।
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