उम्र-ए-पड़ाव क्या है!
उम्र-ए-पड़ाव.. क्या.. है!
जरूर... देखो, एक बार!
झांककर ही सही,
फिर कहना,
सभी के लिए
ये जरूरी...
है.. की नहीं..।
फिर भी..,
मैं. कहता हूं,
हो सकता है,
मैं गलत हूं,
तुम.. ही, हो सही।
मेरी सलाह है;
आप.. सभी को।
जिंदगी रहते.., कम से कम
एक बार तो, मिल लो!
'जिंदगी से.. दूर.. होती
किसी.. की.. भी, जिंदगी से।'
किसी की,
'सुनी' नहीं,
अपनी देखी, p
अनुभूति से जागो,
यथार्थ धरातल पर जिओ,
जीवन में जिंदगी.. बांटो।
लेकिन तेज धूप* में
दिखे…गा, क्या ?
तुमको…
जिंदगी के “अंधेरे का सच”
नहीं ! बहुत कम!
यह तो वैज्ञानिक सच है,
जानते ही हैं, हम।
यही… तो है,
जिंदगी का भी… सच।
नहीं दिखता जवानी में
ही नहीं, तब तक,
हाथ पैर चलते हैं तुम्हारे
तब तक।
झूठ क्यों बोलूं,
यही तो है, जादू जिंदगी का*
देखो न,
जा के,
कभी
किसी भी वृद्धाश्रम में,
वहां धूप कम होगी,
क्योंकि, जिंदगी चलते चलते
अपनी छांव में उतर आती है
बूढ़ों से भरे कुछ कमरों में
अपनों... के बीच.... नहीं,
अपनी ही पुरानी.. यादों में
डूबती.. उतराती.., भरमाती.. है।
इसलिए कहता हूं, तुम्हें
शायद कुछ ऐसा दिखे!
तुम्हारी ये मारक दौड़
उसे देख, कुछ तो रुके।
या उन घरों में
कभी….तुम रुकना,
कोई अपाहिज बूढ़ा
रहता हो जहां।
जिंदगी की भाग दौड़,
दे.., दे.., के जिसने,
बीमारी.., लकवा..,
अपाहिजता.. ले ली है, अपने..।
वो बोझ.... है ...
‘अब’ इस हाल में,
घर में बचे... सभी... के लिए।
रिश्ते, नाते, जुड़ाव सब
कैसे पलट जाते हैं,
जिनके लिए हम
मरते मारते, ज़मीन कब्जाते,
अधर्म अपनाते, झूठ बोलते
सारी उम्र नहीं अघाते हैं,
वे ही इस उम्र की दहलीज पर
अब हमे, हमारे ही कमाई के
शतांश को भी खर्च करने में
कितनी कितनी बातें बनाते हैं।
जिन परिजनों की आस में
विश्वास में, सपनों के झूले
बुने, बनाए थे तुमने,
वही तुम्हारे कमरे के पास से
थोड़ा हट कर ,
चले जाते है, अपने।
"मानो मेरी बात, ये सच है,
जिंदगी की आखिरी मंजिल
चढ़ना बहुत ही.... टफ है।"
तुम्हारे इस आखिरी
पड़ाव पर आते ही
तुम्हारे आश्रित
जो अब तुम्हे नहीं
तुम्हारे बीमे की राशि
पर ही नजर रखते हैं,
अपनो को, आगे जीने के लिए,
उनके दिमागों में से,
जाने कहां से,
एक तराजू निकल आती है,
तुम्हे और तुम्हारी
आगे की प्रासंगिकता तौलने के लिए।
तुम्हें तौलते हैं, उस पर
वही लोग, जिनके लिए
आपने संजोए थे
जिंदगी के सबसे सुंदर अपने सपने।
जिनके लिए, तुमने कभी अच्छे से
एक सांस भी नहीं ली
खुद को जीने के लिए।
उस तौल के वक्त,
उन सबको,
तुम और तुम्हारी
यही जिंदगी
हल्की नजर आती है।
तुम खर्चीले सौदा लगते हो
तुम्हारी बीमारी असाध्य बन जाती है।
सहारे, रिश्ते, रेलिंग, रुपया,
सेहत, सेवा, पावर, रूतबा,
भलाई, निष्ठा, संबंध, मित्र
पत्नी, बेटा, सरकार, व्यवस्था
इंश्योरेंस, गारंटी, दौलतें सारी
बेकार, अर्थहीन, नपुंसक, सत्वहीन
होते देखा है।
देखा है, छल प्रपंच कारियो को
इस कटिंग-एज पर,
गलकर गलते हुए,
सड़े पुराने घाव से
मवाद सा बहते हुए।
जय प्रकाश मिश्र
जीवन की यथार्थता की वास्तविक अनुभूति को सचित्र वर्णित किया गया है | 🙏🙏🙏
ReplyDeleteआपने पढ़ा समझा, मैं कृतार्थ हुआ।
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