तूं कभी न झर।
वह फूल था,
खिलता हुआ,
मकरंद थी
मीठी उसकी।
खिलखिला
हंसता जिधर,
सच, मोती
बिखर उठती।
सुंदर था,
स्निग्घ था,
नहाया, नहाया
लगता था।
इतना साफ,
इतना लुभावना,
सच कहूं,
नन्हें बच्चे की
निष्पाप आंखों
सा दिखता था।
डालों पर
ठंडी हवा के साथ
हिल हिल के
ठिठोली करना,
इतराना उसका,
अपने रंगो आब
और रूप पर
नजाकत से
मुस्कुराना उसका।
नीचे खड़ी
उस बेचारी कमसिन
सी बिटिया को
हिकारत से तकना उसका!
मुझसे
देखा न गया!
मैने कहा
थोड़ा ठंड रख!
ये दुनियां है!
बहुत जल्दी
बदल जाती है।
शिखर हो या
ऊंचे बुर्ज पर रहना,
बस कुछ ही समय बाद
पड़ता है उतरना।
वो, ऊंचा बुर्ज हो या
ये ऊंची डालें तेरी,
जमीं पर ही तो टिकी हैं,
कहीं और तो नहीं।
शाम होते ही तूं
खिल कर,
इसी जमीं
पर झर जाएगा,
ये सारी खुशबू
उड़ जाएगी
तुझे कोई
पहचान भी,
नहीं पाएगा।
सच सुनो,
तूं दिन डूबने के पहले ही
झाड़ू लगाते समय
सचमुच सामान्य
कचरे में मिल जाएगा।
इसीलिए तो कहता हूं,
रूप अच्छा है,
खुशबू अच्छी है,
पर याद रखें
किसी और का
दिया हुआ है,
हमें और तुम्हे।
इस पर कभी गुमान न कर
कुछ ऐसा जरूर कर गुजर
की रूपो-रंग झर जाने के
बाद भी
तूं कभी न झर।
जय प्रकाश
अत्यंत उत्कृष्ट है यह रचना
ReplyDelete