तेरे अल्फाज क्या हैं!

तेरे अल्फाज क्या हैं! 

बवंडर, बन

घुमड़ते, 

घेरते मुझको!

उठा के हर नाकामी से, 

मुझे ले संग, हैं उड़ते हैं।


भूलता खुद को, खुदा को

अपनी सरहदें भी मैं 

कभी, जब इनको पढ़ता हूं,

तमाशा खूब होता है 

मेरे अन्तस कुछ ऐसा

नहीं मुझे याद रहती है,

कहां मैं हूं, कहां मैं था, 

कहां हूंगा, कौन मैं था,

कौन हूं मैं, कौन हूंगा, 

तेरे अल्फाज! 

मेरे सिर चढ़.. 

बड़े चुपके..,

हां.. बड़े चुपके;

… जो कहते हैं,

वही बन घूमता हूं मैं,

सुबह से शाम तक खुद में। 

साथ तेरे ही बहता हूं,

लहर बन कर उछलता हूं,

पवन का वेग लेकर हम

नदी की धार बहते हैं,

अचल एक साथ बहते हैं।

किनारे कौन से छूटे 

नहीं! कुछ याद रहता है।


तेरे अल्फाज, 

मुझे ले कब

मेरी अपनी ही दुनियां से

कहां से कब ले 

उड़ते हैं।

कुछ मत पूछ! 

किस किस दुनियां में

मुझको वे घुमाते हैं,

मत पूछ।

फीकी लगती है 

ये असली दुनियां 

सच कहता हूं।

कितनी जिंदगी, जी लेता हूं,

एक साथ, मत पूछ।

कभी बना देवब्रत, भीष्म

हस्तिनापुर को ठोकर मारता हूं,

कभी हमीद बन अर्जुन पर बैठा लड़ता

तो कभी हामिद का चिमटा लिए

घर आता हूं।

कभी शरद का देवदास बना फिरता हूं

तो कभी रैदास के गीतों में समा जाता हूं।

तेरे अल्फाज! 

कुछ तो हैं, जो मुझे कभी कभी

सपनो की भूल भुलैया में घुमा देते हैं।

Comments

  1. शब्दों के माध्यम से अतीत को और एक काल्पनिक दुनियां को संजोया जा सकता है। पाठक उन्हें पढ़कर वास्तविक दुनियां जैसा आनंद पा सकते हैं।

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