पेट भर जाने की सीमा जानती है, नन्हीं चिड़िया
आज आप यह पूरी कविता पढ़ें,आप को अच्छा लगे मेरी पूरी कोशिश है। भावार्थ अंत में अंकित है।
मैं!
मैं चाहता हूं
‘कल’ बुनुं।
सुंदर, सुगढ़,
अनुपम बुनूँ।
सत्य के रेशों
को चुनचुन,
प्यार.. की..
चादर.. बुनूं।
रंग कैसा, मैं चुनूं,
यह सोचता हूं,
डूबता हूं…,
रंग सारी प्रकृति,के मैं।
रंग धानी
खींचता है,
पास मुझको,
पुष्प बन
मैं ही खिला हूं
गोद उसके।
रंग.. धानी..
संग.. केशर
का चुनूं…।
कल डूब जाए
खिलखिलाता
समय सरिता,
आज को
ऐसा बुनूं।
बच सके
जो पीढियां
आने को हैं,
अभिशाप के
हर दंश से
आगे बढूं।
बस यों समझ
ज्यों पत्तियां हैं,
झिलमिलाती,
प्रात में स्वर्निम
किरन संग
झुरझुराती।
मचलती
उन्मुक्त होकर,
पवन के संग।
झरकर….
…झराझर,
सहज निर्झर,
…द्वार तेरे
नीम ऊपर।
सत्य.. का ही
गीत तुझको
वो सुनातीं।
प्रेम का ही
गीत हैं वो
गुनगुनातीं।
सोचता हूं
मैं बुनूं,
कुछ आज ऐसा,
ओढ़ जिसको
कर सकूं मैं
टीस..ते
इस दिल को
हल्का।
क्या उकेरूं,
इस फलक पर
हेरता हूं।
रंग बाली का चुनूं
जो पक गई है,
खेत ऊपर
चुक सुनहरा।
सोचता हूं।
किसी देश की भाषा चुनूं,
या बोलती चिड़िया
की बोली?
खो गया हूं!
‘दुख भरा मन’
तोड़ती,
उड़ती ये चिड़िया।
आह कैसा!
बोलती,
उड़ती ये चिड़िया।
मुक्त है, उन्मुक्त है
किलकारियों से
युक्त है।
उत्स से परिस्नात है,
काल से अज्ञात है।
यह आज में ही प्राप्त है।
यह आज में ही व्याप्त है।
क्यों दुखी है
आज मानव,
ढूंढता हूं।
भार ही,
अभिशाप है
यह देखता हूं।
घर बार भी
एक भार है,
जितना ये
कारोबार है
सबमें छुपा कोई
श्राप है।
जितना बड़ा है जीवन मेरा
उससे बड़ा, ये सवाल है।
सिर पर उठाए घूमता,
इतना बड़ा संसार, क्यों मैं?
कितनी, बड़ी, मेरी जरूरत,
क्यूं बना व्यापार, हूं मैं?
कोई बताए जिंदगी का
फलसफा मुझको तो अब,
तभी:
“एक चिड़िया उड़.. गई थी
छोड़.. दाने.. छत पे सब।”
“पेट भर जाने की सीमा
जानती है, नन्हीं चिड़िया,
रोज सुबहों शाम, अपने
काम पर, जाती है चिड़िया।”
बस यही है राज
जो है, आज तक
मुझको मिला।
सोचता हूं, क्या यही है
इस जिंदगी का
फलसफा।
जय प्रकाश
1. मेरी इच्छा है कि मैं सत्य और प्रेम के ताने बाने लेकर लोगो और अपने लिए सुंदर कल्याणकारी भविष्य के लिए कुछ कर पाऊं।
2. प्रकृति का हरा रंग जीवन का प्रतीक है। क्योंकि सारे पुष्प, फल इसी से पोषण पाते है, और सृष्टि गतिशील रहती है। यह हरा, कुछ धानी सा रंग जीवन रहस्य ही नहीं सर्वप्रिय भी है।
3. समृद्धि का रंग धानी जो सुवर्ण मिश्रित हो जिसमे आने वाला कल किलकिलाए, खुश रहे। आज कुछ ऐसा किया जाय। आने वाली जेनरेसन जो धर्म जाति, वर्ण, वर्ग में बंटी है, वह मुक्त जिए, कुछ ऐसा हो।
4. प्रकृति अपने हर रूप रंग में भेदभाव मुक्त होती है। सभी को पोषण देती है। प्रसन्न रखती है और सदा सत्य को अपने में संरक्षित करती है।
5. करुणाशील हृदय, दुनियां में कष्ट देखकर दुखी रहता है, साथ ही कुछ अच्छा करना भी चाहता है।
6. मनुष्यता व्यापक है, उसके लिए सार्वत्रिक भाषा और प्रतीक जैसे गेहूं की बाली और चिड़िया की बोली हर जगह एक सी होगी, प्रयोग उचित होगा।
7. सुखी प्राणी प्रायः वर्तमान में स्थित होते हैं। कल और बीते कल को भूल आगे बढ़ते है। कुछ प्राणियों का चुलबुला पन ऊर्जित कर देता है चिड़िया भी उनमें से एक है।
8. आज का मनुष्य अनावश्यक जरूरतों, विभिन्न तनावों, समस्याओं, से घिर दुखी है। अनेक तरह के दायित्व बोध, काम के बोझ तले वह पिस रहा है। जीवन के हर क्षेत्र में तनाव, भागदौड़ बुरी तरह समाहित है।
9. यह तो अपनी रोज की कहानी ही है, आप सभी इसे जी रहे हैं। जानते भी हैं। लालच, स्वार्थ से मुक्त संतोष और सीमा ज्ञान से युक्त, कल के विमोह के साथ श्रमशील जीवन शैली होगी तभी कल्याणमय जीवन होगा ऐसा मेरा मानना है।
Coments. Sri KC tripathi ji
सुंदर परिकल्पना , सुंदर शब्द विन्यास , सुंदर कल्पना शक्ति तथा कथानक का भावार्थ मधुर एवं सुंदर । हार्दिक धन्यवाद ।
Sri bhutani ji वाह मिश्रा जी वाह 👏🏻👏🏻👏🏻
Sri A.K.Srivastav ji. Sure. Love your posts
Heart touching poem 💖👌👌
ReplyDeleteआपके फीलिंग्स का धरातल हमारा मार्ग है।
Delete